प्रेम कहानी-3 : “निःशब्द मोर पंख”

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प्रेम कहानी-3 : “निःशब्द मोर पंख”

माँ कभी भी अपनी अलमारी में रखे छोटे से बक्से को हम दोनो भाई बहन को हाथ नहीं लगाने देती थी। बचपन में जब भी वो हमें पैसे देने के लिए अलमारी खोलती तो वह बक्सा हमें अलमारी के कोने में छुपा हुवा नजर आता छुपता, छुपाता सा, कभी मम्मी की साडी से ढका हुवा, या कभी कोई टेबल क्लॉथ से, या कोई अन्य कपडा।

पर हमने कभी भी माँ को उसे खोलते हुए नहीं देखा । अलमारी की चाबी हमेशा माँ के चाबी के गुच्छे में माँ की कमर में लटकी हुई रहती थी। लेकिन आज माँ की तेरहवीं के बाद, छोटे भाई के कहने पर, मैंने अलमारी से निकालकर बक्सा खोला तो निकला क्या ? सिर्फ रंगीन काँच की चुडियाँ, सूखे गुलाबों की पंखुड़ियां जो जरा सा हाथ लगने से चूर हो गयी थी। साथ ही एक किताब थी “परिणीता‘, जिसमें ढेर सारे मोरपंख भरे हुए थे। किताब हाथ में पकड़ते हुए ही उसमें से मोरपंख खिसककर फर्श पर बिखर गये। पता नहीं उन्हे देखकर आँखे नम हो आयी। मन भी उदास हो गया आखिर उन्हे इतना सहेजने की क्या जरूरत थी।

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पिताजी का देहान्त 2 वर्ष पूर्व ही हो चुका था । माँ की तेरहवीं के समय ही इनका भी प्रमोशन काल आ गया था, इसलिए हमें जल्द ही बैंगलोर जाना पडा, वहा पर जब तक सरकारी मकान मिलता हमे किराये से घर लेना पड़ा, लेकिन किस्मत से पडोसी बहुत ही सज्जन मिले। उनके घर में पति, पत्नी, बेटा बहू, पोता और उनके बड़े भाई। भाई ने शादी नहीं की थी वो उनके साथ ही रहते थे। सिनियर पोस्ट से रिटायर्ड । पूरा परिवार उनके ही गुणगान करता रहता था। मेरा उनका आमना सामना हुआ तो परिचय जानकर, अच्छा इंदौर की ही हो, मेरे पैर छूने पर उन्होंने जिस ममत्व और अपनेपन से सर पर हाथ रखा, उससे यू लगा मानो मै उन्हें पहले से ही जानती हूँ। और अब पहले से कहीं अधिक उनसे मेलजोल बढने लगा था, शायद इसलिए कि मेरा बेटा और आंटी का पोता दोनो एक ही क्लास और स्कूल मे भी साथ रहे। हमउम्र भी थे इसलिए उनकी दोस्ती भी बहुत जल्द हो गयी स्कूल से आते ही दौडकर मेरा बेटा भी उनके घर पहुँच जाता। आन्टी भी दोनो को साथ देखकर बहुत खुश होती रहती।

आज भी अथर्व स्कूल से आते ही उनके घर चला गया था। काफी देर हो गयी तो उसे लाने के लिए मै आन्टी के घर पहुंची तो अथर्व दौडकर सीढ़ियां चढ़ने लगा, लेकिन जल्द ही उसका पैर फिसल गया, तभी अचानक आये अंकल के भाई साहब ने उसे हाथों से यूं पकडा कि वो गिरते गिरते भी बच गया, मेरी भी जान में जान आ गयी, नहीं तो अनर्थ हो गया होता। लेकिन तभी मेरी नजर अंकल के भाई साहब के हाथ से छूटे बेग पर पड़ी, शायद उसकी जीप खुली रह गयी थी, उसमे से बाहर निकलकर कुछ किताबें फर्श पर बिखर गयी उसमे से एक किताब परिणीता भी थी, उसमें से ढेर सारे मोर पंख निकल कर फर्श पर बिखर गये थे, मैंने भी समेटने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया, अचानक मेरे मुंह से माँ को भी मोर पंख का बहुत शौक था, निकलने वाला था किन्तु अंकल के मोर पंख सहेजने वाले हाथ और उनकी याचनापूर्ण आँखों ने मुझे ऐसा जताया जैसे में कुछ ना कहूं। फर्श पर परिणीता किताब और मोर पंख बिखरे पड़े थे। लेकिन उसके साथ माँ का बक्सा भी मेरी आंखो के सामने घूम गया, बक्से की रंग बिरंगी चूड़ियां, सूखे गुलाब और मोरपंख। सब कुछ निःशब्द होकर भी बहुत कुछ कह गये। वह गुजरे जमाने का दौर था। माँ के बक्से के उत्तर भी मेरे सम्मुख आते चले गये। वो निःशब्द मोरपंख और कुछ अनुत्तरित प्रश्न भी।

— शोभा दुबे

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लेखिका ,सामाजिक कार्यकर्ता ,एक प्रेरणा दायक व्यक्तित्व