प्रोटोकॉल के नाम पर तमाशे

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लोकतंत्र में आप राजपथ से लोकपथ पर आएं या लोकपथ से राजपथ पर जाएँ,आपके लिए कुछ न कुछ तमाशे किये ही जाते हैं। इन तमाशों के पीछे नौकरशाही के अपने स्वार्थ हैं ,जनता के सुख-दुःख का इससे कोई लेना-देना नहीं है । इस तमाशे को सरकारी भाषा में ‘ प्रोटोकॉल ‘ कहा जाता है। ‘प्रोटोकॉल ‘ दरअसल राजा से राजा का मिलना, उठना, बैठना, बोलना, चलना, लिखना, पढ़ना, सजना, राजा की सुरक्षा आदि का एक परम्परागत स्वरूप है।आज के लोकतंत्र में मंत्री,सांसद,विधायक ही राजा हैं।

प्रोटोकॉल कायदे से राज्य के अतिथियों के लिए बनाई गयी नियमावली है । इसका अनुपालन करने के लिए बाकायदा एक अधिकारी भी होता है जो अतिथियों के आगमन पर उनके आवास,परिवहन,सुरक्षा और भोजन के अलावा उनकी अगवानी और सम्मानजनक विदाई की व्यवस्था भी करता है। सबका अपना-अपना प्रोटोकॉल होता है। राष्ट्रपति से लेकर राज्य स्तर के मंत्री तक का। लेकिन राज्यों में प्रोटोकॉल पद के साथ ही निजी हैसियत के अनुसार भी घटता-बढ़ता रहता है। प्रोटोकॉल के तामझाम से ही व्यक्ति की गरिमा जुड़ी हुई है।

प्रोटोकॉल की व्यवस्था करने वाले अपने विवेक से काम लेते है। लिखित,अलिखित निर्देश इसमें शामिल हैं। मसलन आजकल मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में प्रभारी मंत्री को भी मुख्यमंत्री जैसा प्रोटोकॉल मुहैया कराया जा रहा है ,क्योंकि प्रभारी मंत्री को वहां का प्रशासन भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखता है। प्रोटोकॉल में वाहनों का लंबा काफिला,होता है ,सुरक्षा चक्र होता है ।

फॉलो और पायलट वाहनों के साथ कांय-कांय करते सायरन वाले वाहन होते हैं प्रोटोकॉल अधिकारी के रहते हुए भी इंदौर में संभाग आयुक्त से लेकर पुलिस महानिरीक्षक स्तर तक के अधिकारी सेवा में लगे दिखाई देते हैं। इंदौर अब पुलिस कमिश्नर प्रणाली के तहत आ गया है। अब देखना है की वहां प्रभारी मंत्री के मुख्यमंत्री जैसे प्रोटोकॉल में कोई तबदीली आती है या फिर सब कुछ पहले जैसा ही रहता है।

ग्वालियर में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को समान प्रोटोकॉल मिला करता था। लेकिन जैसे -जैसे सिंधिया का राजनीतिक वजन बढ़ा वैसे-वैसे उनके प्रोटोकाल में भी बदलाव होता गया । अब सिंधिया और तोमर के प्रोटोकॉल का अंतर साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। तोमर के प्रोटोकाल में सिंधिया को दिए जाने वाले वाहनों की संख्या के साथ अधिकारी भी कम हो गए हैं।

सिंधिया को लेने और छोड़ने के लिए संभाग स्तर के अधिकारी हाजरी देते हैं जबकि ये काम राजपत्रित अधिकारियों का है। पिछले दिनों तोमर को रेलवे स्टेशन पर विदाई देने राजपत्रित स्तर के अधिकारी ही भेजे गए जबकि सिंधिया के लिए कमिश्नर और आई जी खुद हाजिर रहते हैं। यही नहीं प्रोटोकॉल को तोड़कर कमिश्नर और आईजी सिंधिया के पीछे पीछे राज्य की सीमा के बाहर धौलपुर तक भी जाते देखे गए।

मजे की बात ये है कि प्रोटोकॉल सुनिश्चित करने के लिए समबन्धित नेताओं के सहायक अधिकारी पूर्व में ही जिला प्रशासन को खत लिखकर अपेक्षित सुविधाओं के बारे में आगाह कर देते हैं। आपको यकीन नहीं होगा की कुछ नेता तो अपने लिए प्रोटोकाल के तहत अपनी पसंद के मॉडल का वाहन तक मांगने में संकोच नहीं करते। प्रशासन मंत्रियों को ही नहीं उनके परिजनों तक को अघोषित रूप से प्रोटोकॉल की सुविधाएं मुहैया करने में अपना सौभाग्य समझते हैं।

प्रोटोकॉल के मनमाने इस्तेमाल के बारे में हमारे एक जानकार मित्र बताते हैं ये कि ये सब नौकरशाही का प्रपंच है । वरिष्ठ अधिकारी अपनी-अपनी नौकरी सुरक्षित रखने के लिए सीमाएं तोड़कर काम करते हैं ,कोई उनसे ऐसा करने के लिए कहता नहीं हैं ,हाँ ये बात और है कोई ऐसा करने से रोकता भी नहीं है। अपने ही शहर में काफिला लेकर चलने के आदी नेताओं को देखकर हँसी आती है,क्योंकि अतीत में ऐसा कभी होता नहीं था।

माना जाता है कि स्थानीय राजनीति में जिसका जितना दखल है उसे उसी हिसाब से प्रोटोकॉल की सुविधाएं मुहैया कराई जाती है। इंदौर,ग्वालियर भोपाल और जबलपुर के अलावा उज्जैन में प्रोटोकॉल का आधार नेताओं की राजनीतिक हैसियत ही है। ग्वालियर में जैसे अब कोई पदस्थापना या तबादला सिंधिया की मर्जी से होता है तो प्रशासन सिंधिया को तवज्जो देता है तोमर को नहीं। यही हाल दूसरे शहरों का है।

नेताओं के प्रोटोकॉल पर होने वाला सारा खर्च राज्य सरकार के खजाने पर पड़ता है अर्थात ये सब करदाताओं के पैसे पर होने वाला तमाशा है। कांग्रेस के शासनकाल में भी यही सब होता था,भाजपा के शासन में भी यही सब हो रहा है। प्रोटोकॉल पर फिजूलखर्ची न गांधीवाद रोक पाता है और न दीनदयाल उपाध्यायवाद ।

आखिर जनसेवा के बदले कुछ तो मेवा जन सेवकों को मिलना चाहिए। जिन शहरों में प्रशासन की प्राथमिकता सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था मुहैया करना होना चाहिए थी वहां सब कुछ प्रोटोकॉल पर खर्च किया जा रहा है । प्रोटोकॉल के लिए प्रशासन को वाहन किराए पर लेना पड़ते है। पहले ये काम सरकारी विभागों में उपलब्ध वाहनों से हो जाता था लेकिन जबसे नेता अपनी पसंद के मॉडल वाले वाहन मांगने लगे हैं तब से सब कुछ बदल गया है।

प्रशासन को कभी-कभी तो एक साथ नेताओं का जमावड़ा हो जाने पर वाहन पड़ौसी शहरों ही नहीं पड़ौसी राज्यों तक से किराये पर मंगाना पड़ते हैं। तांत्या मामा का अवतार प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रोटोकॉल के नाम पर होने वाले तमाशों को रोक पाएंगे इसमें संदेह है,क्योंकि वे खुद प्रोटोकॉल तोड़ने में सबसे आगे रहते हैं।

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RAKESH ANCHAL
राकेश अचल

राकेश अचल ग्वालियर - चंबल क्षेत्र के वरिष्ठ और जाने माने पत्रकार है। वर्तमान वे फ्री लांस पत्रकार है। वे आज तक के ग्वालियर के रिपोर्टर रहे है।