RSS Advocating Unified Indian Subcontinent: भागवत साहेब, क्या जरूरी है-अखंड भारत या भारत को अखंड रखना?

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RSS advocating unified Indian subcontinent: भागवत साहेब, क्या जरूरी है-अखंड भारत या भारत को अखंड रखना?

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) के सर संघ चालक मोहनराव भागवत ने हाल ही में कहा है कि भारत आने वाले 15 वर्षों में फिर से अखंड भारत बनेगा।

उन्होंने ऐसा क्यों कहा, यह तो वे ही बेहतर तरीके से बता सकते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि यह कोई उम्दा ख्याल नहीं है और आम भारतीय शायद ही इसके समर्थन में आगे आये।

वजह साफ है-हिंदू-मुस्लिम को लेकर देश में चल रहे विवाद, बहस, वाद-प्रतिवाद के दौर में इसे न तो भारत के हक में कहा जा सकता है, न हिंदू हित में।

बावजूद इसके यदि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) प्रमुख ने कहा है तो बिना विचारे तो निश्चित ही नहीं कहा होगा। आम तौर पर यह माना जाता है कि संघ मुस्लिम विरोधी है। इस दुष्प्रचार के कभी भी कोई पुख्ता सबूत सामने नहीं आये।

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इसके उलट किसी भी बड़ी विपदा के वक्त मुस्लिमों की सहायता करने में भी संघ के स्वयं सेवक पीछे नहीं रहे, इसके अनेक उदाहरण सामने आते रहे हैं।

वैसे तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) की अ‌वधारणा में अखंड भारत प्रारंभ से रहा है। अपने स्थापना काल (दशहरा 1925) से उसके दो स्पष्ट अभिमत रहे हैं।

एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना। दूसरा, अखंड भारत। वैसे तो अनेक मौकों पर हिंदू राष्ट्र को काफी विस्तार से भागवतजी व उनके पूर्ववर्ती व्याख्यायित करते रहे हैं, जिसमें वे कहते हैं कि हिंदू राष्ट्र याने हिंदुओं की बस्ती जैसा नहीं है।

वे मानते हैं कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति भारतीय है याने हिंदू। कोई भी इससे असहमत हो सकता है, किंतु राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) अपनी इस अ‌वधारणा पर दृढ़ रहता आया है।

भागवतजी ने इस वक्त यह बात क्यों कही, इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि क्या वे सचमुच अब भी अखंड भारत चाहेंगे।

इसके विस्तार में जाने से पहले यह देखते हैं कि अखंड भारत क्या था और दूसरा अहम पहलू यह है कि क्या इस समय यह व्यावहारिक रूप से संभव है? पहली नजर में तो यह अभिलाषा असंगत ही नजर आती है।

अखंड भारत याने भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यामार, तिब्बत, श्रीलंका और मालदीव।

ऐतिहासिक, भौगोलिक, राजनीतिक, सामरिक और वैश्विक दृष्टि से यह असंभव न सही, आसान या तर्कसंगत तो नहीं माना जा सकता।

बीते दो दशकों से दुनिया के अनेक मुल्क इस्लामिक आतंकवाद से पीड़ित रहे हैं। भारत उसमें से एक राष्ट्र तो है ही, साथ ही सर्वाधिक प्रभावित रहा है और इससे पूरी तरह से उबर नहीं पाया है।

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ऐसे में पड़ोसी मुस्लिम देशों को भी मिलाकर अखंड भारत का सपना देखना कुछ जमता नहीं। भारत की 130 करोड़ की आबादी में 2020 की जनगणना के अनुसार 21.47 करोड़ मुस्लिम हैं।

अब यदि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश को भी मिलाने की बात करें तो वहां की मुस्लिम आबादी है क्रमश: 22.09 करोड़, 3.89 करोड़ और 16.47 करोड़।

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ऐसे में भारत में मुस्लिम आबादी हो जायेगी 63.75 करोड़ और भारत की कुल आबादी हो जायेगी 172.45 करोड़।

अब सीधे तौर पर दो मसले हैं। पहला, अभी देश में 21.30 करोड़ मुस्लिम आबादी की मौजूदगी से मुस्लिम और हिंदू दोनों ही असहज हैं, यह ऐसी सच्चाई है, जिसे स्वीकार कर ही हम समग्र और सार्थक चिंतन कर सकते हैं।

दूसरा मसला है, देश की कुल 130 करोड़ आबादी को संभालना, संचालित करना ही टेढ़ी खीर है तो आयातित करीब 45 करोड़ आबादी का बोझ बढ़ाना क्या बुद्धिमानी होगी?

रोजगार, खाद्य‌ान्न, पानी, आवास और सरकारी योजनाओं का हित लाभ कैस बुरी तरह से गड़बड़ा जायेगा, इस बारे में कौन सोचेगा?

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साथ में यदि नेपाल, भूटान, तिब्बत, श्रीलंका, मालदीव और म्यांमार को भी जोड़ लें तो आबादी में तो केवल 4-5 करोड़ का ही इजाफा होगा, किंतु नित-नये मसलों का जो अंबार लगना प्रारंभ होगा, उसका क्या?

एक और बात, अभी भारत का भौगोलिक विस्तार करीब 33 करोड़ वर्ग किलोमीटर है, जो इन देशों की सीमायें मिलाने के बाद 50 करोड़ वर्ग किलोमीटर से अधिक हो जायेगा।

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इतने विशाल भू भाग का प्रबंधन, सुरक्षा करना किसी गणीतिय आंकलन जैसा तो है नहीं कि कलम-कागज लेकर निपटा दिया जायेगा।

ऐसा भी नहीं है कि भागवत साहेब नींद से जागे और जो मन में आया, कह दिया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) की ओर से कभी कोई ऐसी अर्नगल बात नहीं कही जाती, जिसका सिर-पैर न हो।

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चूंकि यह उनकी नीति-परिकल्पना के तहत ही आता है तो कोई कार्य योजना रही ही होगी। इसे वे कब, कैसे, सरकार के साथ साझा करेंगे, यह बेशक वे ही तय करेंगे।

तब भी देश के जनमानस को टटोलने के लिहाज से भी कभी इसे देश के साथ भी बांटेंगे तो मुझे लगता है कि इस पर स्वस्थ बहस, चर्चा प्रारंभ हो सकती है।

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फिर भी हमें यह तो मानना पड़ेगा कि रूस-यूक्रेन युद्ध‌ की वीभिषीका देखने के बाद सीमा विस्तार का सपना संजोने की कैसी और कितनी कीमत चुकानी पड़ती है।

वैसे ही दुनिया तीसरे विश्व युद्ध‌ के मुहाने बैठा टुकुर-टुकुर देख रहा है। यह न हो, यह तो सब चाहते हैं, लेकिन इसका ऐसा कोई रिमोट नहीं है, जो किसी एक के हाथ में हो।

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मानव इतिहास की अनिवार्य नियति है युद्ध‌, जो वह सभ्यता के विकास के साथ लड़ ही रहा है। इसके समानांतर शांति के प्रयास भी निरंतर चलते रहे, किंतु हश्र से भी हम सब वाकिफ हैं।

ऐसे में यही कहा जा सकता है कि एक हजार साल पहले के अखंड भारत की सीमाओं तक भारत का विस्तार करने से बेहतर होगा भारत को अखंड बनाये रखना।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) ने देश के हर आम-खास के बीच राष्ट्र चेतना जगाने, स्वदेशी अपनाने, सनातन परंपरा को बरकरार रखने और हिंदुत्व याने भारतीयता का भाव जगाने के लिये जो भागीरथी प्रयास किये हैं, उन्हें जारी रखते हुए देश को एकता, अखंडता के सूत्र में बांधे रखने का बीड़ा उठाना चाहिये।