Silver Screen: कमर्शियल सिनेमा से होड़ में पगडंडी से उतरा गांव!

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Silver Screen: कमर्शियल सिनेमा से होड़ में पगडंडी से उतरा गांव!

बीते कुछ सालों में शायद ही आपने कोई ऐसी नई फिल्म देखी हो, जिसमें गाँव, वहाँ का जीवन और गांववालों की पीड़ा नजर आई हो! याद किया जाए तो ‘लगान’ के बाद तो ऐसी कोई फिल्म आई भी नहीं, जिसकी पूरी कहानी गाँव पर केंद्रित हो! अब जो फ़िल्में आ रही हैं, वो लकदक हाई-सोसायटी के आसपास घूमती कहानियां हैं।
उनमें कॉरपोरेट कल्चर होता है, षड़यंत्र रचे जाते हैं, कंपनियों को टेकओवर करने की चालें होती हैं, पर इन फिल्मों के कथानक बड़े शहरों से बाहर नहीं निकलते! आज स्थिति यह है कि ज्यादातर फिल्में सौ और दो सौ करोड़ के बिजनेस का लक्ष्य बनाकर बनाई जाती हैं। कमाई की यही होड़ हिंदी फिल्मों से गांव के गायब होने का सबसे बड़ा कारण है। फिल्मकारों की नजर में ये कमाऊ विषय नहीं है।
अब जिन फिल्मों में गांव दिखाई भी देता है, तो किसी और संदर्भ में! ‘स्वदेश’ जैसी फिल्म बनाने की कोशिश भी हुई, पर ये सही ग्रामीण फिल्म नहीं, बल्कि मातृभूमि की और वापसी पर आधारित थी। इस बीच पहलवानी पर भी दो फ़िल्में ‘दबंग’ और ‘दंगल’ आई, पर इसमें भी गांव नहीं दिखा।
           कुछ साल पहले ‘पीपली लाइव’ आई, जो गांव की सच्चाई और समस्याओं वाली फिल्म थी। इसमें किसानों के लिए बनी योजनाओं को बाबुओं और अफसरों द्वारा हड़पने का जिक्र ज्यादा था!  लेकिन, बड़े तबके को यह फिल्म समझ नहीं आई।
Silver Screen: कमर्शियल सिनेमा से होड़ में पगडंडी से उतरा गांव!
     सिनेमा का एक दौर ऐसा भी आया था, जब गांव और गांव वाले सिनेमा की पहचान थे, पर जैसे-जैसे सिनेमा का बाजार बना, परदे से गांव विलुप्त होते गए। सिनेमा का इतिहास टटोला जाए, तो शुरुआती फिल्मों का कथानक गांव की पगडंडियों से होकर ही गुजरा था।
वी शांताराम की दो बीघा ज़मीन, विमल राय की यादगार और बंदिनी, राज कपूर की आवारा, श्री 420 और ‘बूट पॉलिश’ ग्रामीण परिवेश की ऐसी फ़िल्में थीं, जिन्होंने देश और दुनिया को वहाँ की समस्याओं और उनके जीवन से रूबरू करवाया था। लेकिन, समय बदलने के साथ सिनेमा का चेहरा भी बदलता गया। अब तो यह हालात हैं कि गांव का जीवन परदे से लगभग गायब ही हो गया। जीवनशैली बदलने के साथ सिनेमा(Silver Screen) के कथानक भी बदलते गए।
शहरी ज़िंदगी और उसकी चकाचौंध भरी जीवनशैली से सिनेमा का परदा चमकरदार होता गया। अब तो एक फार्मूला हिट होते ही उस जैसी फिल्में बनने लगती है। ‌
           महेंद्रसिंह धोनी की बायोपिक हिट हुई, तो उस तरह की फिल्मों की लाइन लग गई! दर्शकों को देशप्रेम का फार्मूला पसंद आया तो हर दूसरी फिल्म में पड़ौसी देश को निशाना बनाया जाने लगा। ये तो महज एक उदाहरण है, पर आजकल यही ट्रेंड बन गया। लेकिन, किसी फिल्मकार ने ‘लगान’ की सफलता के बाद भी उसका अनुसरण नहीं किया।
    सर्वाधिक सफल हिंदी फिल्म मानी जाने वाली रमेश सिप्पी की ‘शोले’ वास्तव में रामगढ़ गाँव की कहानी थी! लेकिन, इस फिल्म से भी गाँव नहीं था। जो गांव था, वो डाकू गब्बर सिंह और बदले पर उतारू ठाकुर साहब के बीच कहीं गुम हो गया था। यहाँ तक कि फिल्म के गीतों में भी गाँव नहीं झलका! फिल्म में कोई लोकधुन सुनाई नहीं दी! गब्बर सिंह भी अपने अड्डे पर अरबी धुन वाला ‘महबूबा ओ महबूबा’ गाना ही सुनता दिखाई दिया।
Silver Screen: कमर्शियल सिनेमा से होड़ में पगडंडी से उतरा गांव!
‘शोले’ की सफलता ने फ़िल्मी गाँव की जिंदगी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया! इससे पहले जो फ़िल्में गाँव के जीवन पर बनी, उनमें एक अलग सी महक होती थी! गाँव हमारा-शहर तुम्हारा, दो बीघा जमीन और मदर इंडिया को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। अब तो ग्रामीण जिंदगी और वहाँ के रीति-रिवाजों पर फ़िल्में बनाने के लिए पहचाने जाने वाले ‘राजश्री’ भी संयुक्त परिवारों और उसकी साजिशों की कहानियों पर मल्टीस्टारर फ़िल्में बनाने लगे हैं!
नदिया के पार, बालिका वधु और ‘गीत गाता चल’ जैसी कालजयी फ़िल्में बनाने वाली ये फिल्म निर्माण कंपनी भी गाँवों से शहर पहुँच गई! दरअसल, सारा मामला व्यावसायिक है। सौ-दो सौ करोड़ के क्लब में शामिल होने की अंधी दौड़ से आखिर कौन पिछड़ना चाहेगा! सिनेमा के परदे से गाँव की मिट्टी की सौंधी महक ही नहीं, लोकगीत तो गायब हो गए! ये दौर आज-कल में नहीं आया! 80 के दशक के बाद से ही फिल्मकारों ने धीरे-धीरे गाँवों की धूलभरी पगडंडी को छोड़ दिया था!
    आंकड़ों के नजरिए से देखा जाए तो देश की 66% आबादी हिंदी सिनेमा से गायब हो गई। अब जो फ़िल्में बन रही है, उनका कथानक 34% आबादी पर केंद्रित रहता है, पर उसे पूरे देश में बेचा जाता है। वर्ल्ड बैंक की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक देश की 66% आबादी गांव में रहती है। लेकिन, इस सच्चाई को भी नकारा नहीं जा सकता कि ग्रामीण जीवन की कहानियों से हिंदी सिनेमा का कारोबारी विकास नहीं हो सकता।
पर, अफ़सोस की बात है कि बॉक्स ऑफिस पर 34% से कमाई के लोभ में 66% ग्रामीण जीवन को बहिष्कृत कर दिया गया। जबकि, फिल्म इंडस्ट्री में ज्यादातर लोग गांव से ही आते हैं। लेकिन, उनकी मज़बूरी है कि उन्हें शहरी जीवन की कहानियां गढ़ना पड़ रही है। समानांतर सिनेमा का तो मूल आधार ही ग्रामीण पृष्ठभूमि है, उसे इन कहानियों का प्रतिबिंब कहा जाता है।
Silver Screen: कमर्शियल सिनेमा से होड़ में पगडंडी से उतरा गांव!
अंकुर, पार, दो बीघा ज़मीन, सूरज का सातवां घोड़ा और ‘अंतर्नाद’ जैसी फिल्में ग्रामीण भारत का प्रतिनिधित्व करने में सफल रहीं। लेकिन, अब ऐसी फिल्में नहीं बनती! अब तो फिल्मों ने झूठ, फरेब और काल्पनिकता की चादर ओढ़ ली है, जिनमें शहरी चकाचौंध, मारधाड़, छल और खून खराबा ही विषय बन गए।

    आज फिल्मकार दावा करते हैं कि वे समाज के सभी पक्षों और पहलुओं को फिल्मों में चित्रित करते हैं। लेकिन, अब फिल्मों से गांव और किसान क्यों नहीं हैं, इसका उनके पास शायद ही कोई जवाब होगा! हिंदी फिल्मों में अब खेत-खलिहान, लहलहाती फसलें, हल चलाते किसान, खेत जोतते ट्रैक्टर, गांव की चौपाल और वहाँ की पंचायतें गायब हैं।

ओटीटी प्लेटफॉर्म की कुछ वेब सीरीज में गांव जरूर दिखाई दी, पर उनका फोकस अपराध और अपराधियों पर फोकस होता है। वास्तव में ग्रामीण इलाकों, गांव की कहानियों और किसानों के किरदार में निर्देशक, निर्माता और यहां तक कि दर्शकों की भी रुचि नहीं है। उनके लिए सिनेमा महज मनोरंजन होता है और वह शहरी कहानियों में ही है। इन कहानियों में वो सबकुछ होता है, जो आज के दर्शक देखना चाहते हैं।

जबकि, गांव के जीवन में तो कष्ट, अभाव और पीड़ा के अलावा और कुछ नहीं होता। मनोज कुमार ने कभी लालबहादुर शास्त्री के नारे ‘जय जवान जय किसान’ को लेकर ‘उपकार’ फिल्म बनाई थी। इस फिल्म को देखते हुए दर्शकों ने ‘दो बीघा जमीन’ और ‘मदर इंडिया’ के दौर के गांव के बदलाव को महसूस किया था। इसके बाद में ‘किसान’ और ‘गोरी तेरे गांव में’ जैसी अतार्किक फिल्में बनती रही।

    परदे से गाँव नदारद होने का सबसे ज्यादा असर ये हुआ कि समाज में अपनत्व की भावना गायब हो गई! आज की कहानियों में काल्पनिक प्रेम और मौज मस्ती ही ज्यादा होती है। जबकि, सिनेमा का मकसद सिर्फ मनोरंजन नहीं है। सिनेमा समाज का आईना भी है। दर्शकों को सामाजिक समस्याओं और उनके निवारण की राह भी दिखाई जाना चाहिए।
इसके साथ ही आज तो सिनेमा हॉल में किसी सीन पर दर्शकों की आँखें तक नहीं भीगती! क्योंकि, ऐसे दृश्यों में आज के फिल्मकार भावनाएं नहीं डाल पाते! अब तो सिनेमा हॉल में सिक्के भी उछलते नहीं दिखते! शायद ही बरसों से किसी ने सिनेमा हॉल में किसी दर्शक को गाने पर डांस करते देखा हो! इसलिए कि अब न तो फ़िल्मी कथानकों में भावनात्मकता है और मिट्टी की वो महक जिससे हिंदी का फिल्मलोक रोशन था!
   1980 में गोविन्द निहलानी ने गाँव पर केंद्रित फिल्म ‘आक्रोश’ बनाई थी। यह फिल्म एक लोमहर्षक सच्ची घटना पर बनी थी। फिल्म की कहानी लहनिया भीकू नाम के एक किसान की थी, जो जमींदार के अत्याचारों से त्रस्त है। ये लोग उसकी पत्नी के साथ गैंगरेप करते हैं, लेकिन जेल होती है लहनिया को! पत्नी लक्ष्मी शर्म से आत्महत्या कर लेती है। पत्नी के अंतिम संस्कार के लिए लहनिया को जेल से निकालकर लाया जाता है।
वहाँ गैंगरेप करने वाले उसकी बहन को ही ललचाई नज़रों से देखते हैं। वह पास पड़ी कुल्हाड़ी उठा लेता है और उन गुंडों को काट डालता है। ये था गाँव और वहाँ का सही दर्द जो गोविंद निहलानी ने दिखाया था! डाकुओं की फिल्मों में भी गांव का परिवेश दिखाई दिया जिसमें अत्याचार और डाकू बनने की एक संवेदनशील कहानी थी! पर, अब न गांव बचे और न डाकू!
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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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