जासूसी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल

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एक बार फिर  फोन से जासूसी  पर हंगामा|  निश्चित रूप से निजता (प्रायवेसी) का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  को सुरक्षित रखने के लिए सक्रिय रहना जरुरी है| लेकिन पुराने अनुभवों के इस तथ्य को नहीं भुलाया जा सकता है कि विदेशी गुप्तचर एजेंसियां कुछ पत्रकारों, नेताओं, अधिकारियों, कुछ असली नकली संस्थाओं के पदाधिकारियों को जाने अनजाने भारत विरोधी गतिविधियों में उपयोग करते रहे हैं| ऐसे गंभीर आरोप और कुछ प्रमाण मिलने पर इस्तीफे हुए, अदालती मामले चले, कभी सजा मिली या देश छोड़कर जाने की स्थिति तक बनी| इस सन्दर्भ में राजीव गाँधी के सत्ता काल में  उछले एक गंभीर जासूसी कांड को याद किया जा सकता है|

तब राम स्वरुप जासूसी कांड प्रकाश में आया था, जिसमें एक विदेशी गुप्तचर एजेंसी द्वारा राजनीति और मीडिया से जुड़े लोगों के विरुद्ध भारतीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा एकत्र जानकारियां प्रकाश में आई थी| पहले सबके नामों का उल्लेख किए बिना मैंने एक खबर दिल्ली के प्रमुख दैनिक में 10 अक्टूबर 1985 को  लिखी-छापी|

तब एक क़ानूनी नोटिस भी मिला| मैंने तो यह उल्लेख किया था कि इस कांड से राजीव गाँधी सरकार के कुछ मंत्री संकट में आ सकते हैं| मेरे पास पर्याप्त तथ्य थे| इसलिए कानूनी नोटिस का हमने कोई उत्तर नहीं दिया| जांच का काम आगे बढ़ने के बाद मामला अदालत तक पहुंचा और तीन महीने बाद 28 जनवरी को कांग्रेस के चार मंत्रियों को इस्तीफ़ा देना पड़ा|

इनमें से एक दिल्ली के ही एक अन्य प्रमुख हिंदी दैनिक के पूर्व संपादक भी थे| इसलिए कम से कम यह तो मन जा सकता है कि नेता या पत्रकार जासूसी कांड में लिप्त मिल सकते हैं| हाल ही में अंग्रेजी प्रकाशनों में रक्षा-विदेशी मामलों के अनुभवी पत्रकार को चीन के लिए जासूसी के आरोप में गिरफ्तार भी किया गया है|

यह बात तो सही है कि  सरकारी  एजेंसियां  और  देश विदेश की निजी एजेंसियां भी वर्षों से अधिकृत अथवा गैर कानूनी ढंग से भारत में जासूसी करती रही हैं| अब इजरायल की एक कंपनी के आधुनिक उपकरण से दुनिया के 14 देशों के साथ भारत के भी कई  लोगों के फोन में सेंध लगाकर जासूसी का मामला विवादों में है|

पेगासस उपकरण की खरीदी और उसके उपयोग से जुडी तथ्यात्मक जानकारी के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति पड़ताल कर रही है| न्यूयॉर्क टाइम्स ने तो दावा किया है कि भारत सरकार ने यह उपकरण खरीदा है| जबकि सरकार इस विषय पर कोई स्पष्ट उत्तर देने के बजाय यही कह रही है कि उसने अनधिकृत रूप से कोई जासूसी नहीं करवाई है| मतलब अधिकृत रूप से जासूसी के लिए सरकारी प्रक्रिया है|

कम से कम अनुभवी नेताओं और पत्रकारों को आश्चर्य नहीं होना चाहिए| मुझे 32 वर्ष पहले की घटना याद आती है| ज्ञानी जैल सिंह भारत के राष्ट्रपति थे| उनके करीबी वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल के साथ राष्ट्रपति भवन में बातचीत हो रही थी| पहले हम उनके स्टडी रूम में ही बात कर रहे थे|

फिर राजनीतिक उठापटक पर बात शुरू होने पर यानी जी ने हमसे कहा चलो बाहर लॉन में बात करेंगे| मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ I ज्ञानी जी ने बाहर निकल कर खुद ही बताया कि तुम्हें मालूम नहीं है, आजकल दीवारों के कान भले ही ना हो, टेलीफोन उठाए बिना कोई दूर बैठा हमारी बात सुन लेगा या रिकॉर्ड भी कर लेगा|

उन दिनों ज्ञानी जी और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच मत भिन्नता और अविश्वास का दौर चल रहा था| स्थिति यहां तक गंभीर थी कि कुछ नेता राष्ट्रपति को अपने अधिकार का उपयोग करके बर्खास्त करने तक की  सलाह देने लगे थे| इस तरह फोन से  टेपिंग से बचाव के रास्ते निकाले जाते रहे|

वर्तमान विवाद में असली मुद्दा यह है कि किसी एजेंसी ने  इन चुनिंदा लोगों के फोन में ही सेंध क्यों लगाई? जो नाम सामने आए उनमें से कुछ पर नक्सल संगठनों, उनसे जुड़े संदिग्ध व्यक्तियों और देश विदेश में मानव अधिकारों के नाम पर सहायता देने वालों से संपर्क और संबंध होने के आरोप लगते रहे हैं|

भारत सरकार भी वर्षों से ऐसे व्यक्तियों और संगठनों पर नजर रखती रही है| कांग्रेस गठबंधन  की सरकारें रही हो या भाजपा गठबंधन की राष्ट्रीय अथवा प्रादेशिक सरकारों ने  सुरक्षा व्यवस्था के लिए वैधानिक रूप से भी गुप्तचरी का इंतजाम किया है 1 लेकिन नए जासूसी कांड में बड़े पेंच है.

इजरायल की कंपनी एनएसओ ने कहा है कि वह आतंकवाद और गंभीर अपराधों के खिलाफ लड़ाई में मदद के लिए सरकारी खुफिया एजेंसियों को यह टेक्नोलॉजी देती है| यह  टेक्नोलॉजी मानव अधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के खिलाफ इस्तेमाल के लिए डिजाइन नहीं की गई है|

फिर भी जिन लोगों की जासूसी का मामला सामने आया है, उनमें से कुछ भीमा कोरेगांव के हिंसक गंभीर मामलों के वकील अथवा मानव अधिकार कार्यकर्ता के रूप में चर्चित रहे हैं|

रहस्य यह है कि किसके कहने पर इनके फोन में सेंध लगाई गई| जासूसी भी 2019 के चुनाव से कुछ पहले की तारीखों में  हुई है| व्हाट्सएप यह दावा करता रहा है कि उसके संदेश पूरी तरह सुरक्षित होते हैं| दुनिया भर में उसके 150 करोड़ उपभोक्ता है1 इनमें से करीब 40 करोड़ भारत में है| इसलिए व्हाट्सएप की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी है और उसने बाकायदा अमेरिका की अदालत में इजराइल की कंपनी के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर दिया है 1 यह मामला आसानी से निपटने वाला नहीं है|

मजेदार बात यह है कि इससे पहले भी परस्पर विरोधी  संस्थानों और लोगों ने जासूसी के आरोपों पर बड़ी हाय तोबा मचाई लेकिन कभी किसी पर गंभीर कार्रवाई नहीं हो सकी| कांग्रेस गठबंधन की सरकार के दौरान एक प्रभावशाली मंत्री द्वारा अपनी ही सरकार के  सबसे  वरिष्ठ मंत्री के कक्ष में जासूसी के उपकरण लगाने का  आरोप सामने आया था| सरकार ने अपनी इज्जत बचाने के लिए इस मामले को दबा दिया|

इसी तरह तत्कालीन थल सेना अध्यक्ष जनरल वी के सिंह (अब केंद्रीय मंत्री) की जासूसी का गंभीर आरोप भी सामने आया था| दूसरा मामला बड़ी कारपोरेट कंपनियों, नेताओं और नामी पत्रकारों की  महीनों तक फोन पर होती रही बातचीत की जासूसी के टेप सामने आने पर हंगामा मच गया था| लेकिन आज तक उस जासूसी के सूत्रधारों के नाम सामने नहीं आए और न ही किसी पर कोई  कार्रवाई हुई| कर्नाटक, उत्तर प्रदेश,  मध्य प्रदेश,  गुजरात,  पंजाब, राजस्थान  जैसे विभिन्न राज्यों में सत्ताधारियों द्वारा समय-समय पर अपने विरोधियों और अपने समर्थकों तक की जासूसी के आरोप सामने आते रहे हैं| शायद यही कारण है कि इस बार भी जासूसी कांड को लेकर राजनीतिक हंगामा हो रहा है|

इस विवाद से जुड़ा दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि नक्सली हिंसा अथवा आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े लोगों की प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सहायता करने वालों पर  सरकारी या गैर सरकारी स्तर पर नजर रखने  की पूरी संभावना रहती है|  कानूनी रूप से अधिकार हो सकता है लेकिन देर सबेर यह खतरा बन सकता है कि देश के अंदर या बाहर से सहायता देने वाले लोगों से संपर्क होने पर वह भी संदेह के पात्र हो जाते हैं|

नक्सली हिंसा में कांग्रेस के भी शीर्ष नेताओं की हत्या हुई है| अपने सत्ता काल में वह भी ऐसे लोगों पर नजर रखती रही है| भारत ही नहीं ब्रिटेन और अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देशों में भी सत्ताधारियों अथवा कारपोरेट कंपनियों द्वारा जासूसी के मामले सामने आते रहे हैं| सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय रहने पर अन्य खतरों के साथ इस तरह के खतरों का भी सामना करना होता है|

बहरहाल यह उचित समय है जबकि सरकार, सुप्रीम कोर्ट और  संसद निजता के अधिकार की सीमाएं और किसी भी तरह की गुप्त चरी के नियमों को नए सिरे से तय करे| अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा सुरक्षा व्यवस्था की लक्ष्मण रेखा निर्धारित होनी चाहिए|

(लेखक आई टी वी नेटवर्क-इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं)