कल यूँ ही फ़ुरसत में ‘जब वी मेट’ फ़िल्म देख रहा था तो ये ख़याल आया कि इम्तियाज़ अली दुबारा ऐसा चमत्कार क्यों नहीं कर सके। फिर सोचा कि इम्तियाज़ अली ही क्यों, रमेश सिप्पी भी तो दूसरी ‘शोले’ या जे पी दत्ता दूसरी ‘बॉर्डर’ नहीं बना सके। पर, फिर ये सोचा कि क्या सारे हिंदुस्तान के निर्देशक मिल कर भी दूसरी ‘प्यासा’ या ‘काग़ज़ के फूल’ बना सकेंगे गुरुदत्त कि तो बात ही छोड़ो।
‘ये कूचे ये नीलामघर दिलक़शी के …’ साहिर जैसे महान शायर की ये नज़्म, सचिन देव बर्मन का संगीत और रफ़ी की आवाज़। इन महान कलाकारों को लेकर फ़िल्म ‘प्यासा’ (1957) में ये कालजयी गीत रचने वाला गुरुदत्त। ‘प्यासा’ उस दौर की हिट फ़िल्म थी पर उस समय प्यासा को समझने वाले लोग कम थे, इसलिए प्यासा बॉक्स ऑफ़िस पर वो झंडे नहीं गाड़ सकी, जैसी आज के जमाने में कोई फ़िल्म 100 करोड़ के क्लब में शामिल होकर गाड़ती है। पर, गुरुदत्त जैसा दूसरा फ़िल्मकार कोई नहीं हो सका, न हो सकता है।
‘वक़्त ने किया क्या हसीं सितम …!’
वक़्त सबसे बड़ा सितमगर है और सबसे बड़ा जादूगर भी।
उसी सितमगर वक़्त ने गुरुदत्त को अपनी ज़िंदगी में वो सब नहीं दिया जो वक़्त के जादूगर ने उसेके मरने के बाद ‘कल्ट फ़िगर’ बना कर दिया। गुरुदत्त को मैने फ़िल्मकार इसलिए कहा क्योंकि वे प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, एक्टर, कोरियोग्राफ़र सभी कुछ तो थे।
वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण उर्फ़ गुरु दत्त। एक महान निर्देशक और कलाकार जो अपने समय से पहले आ गया था।
जब मैने ‘प्यासा’ पहली बार देखी थी तो मै 15-16 बरस का था और फ़िल्म देखकर मैं अचंभित रह गया था कि कैसे एक दोस्त, एक प्रेमिका और सगा भाई पैसे के लिए अपने भाई को पागल क़रार देकर मरने के लिए भी छोड़ देते हैं और कैसे एक वेश्या, एक सामाजिक रूप से गिरी हुई लड़की उसे सहारा देकर अपने समय का महबूब शायर बना देती है। फ़िल्म में जो रोल वहीदा रहमान ने निभाया, वो पहले नरगिस दत्त या मधुबाला निभाने वाली थीं और जो गुरुदत्त ने निभाया है वो खुद दिलीप साहब। पर दोनों महान नायिकाओं के अनिश्चय ने वहीदा रहमान को वो रोल दे दिया जिसने उसे रातोंरात स्टार बना दिया। ये वहीदा रहमान की पहली बड़ी हिंदी फ़िल्म थी और दिलीप साहब के मना करने पर ‘प्यासा’ में विजय का किरदार खुद गुरूदत्त ने निभाया। एंड रेस्ट इज़ हिस्ट्री।
गुरुदत्त मूलतः कर्नाटक के रहने वाले थे और फ़िल्मी दुनिया की चाहत उन्हें बॉम्बे खींच लाई।प्रभात फ़िल्म कम्पनी में काम करने के दिनों में गुरुदत्त को दो दोस्त मिले जो जीवन भर उनके दोस्त रहे ये थे देव आनंद और रहमान।
प्रभात फ़िल्म कम्पनी में गुरुदत्त ने फ़िल्म डायरेक्टर ज्ञान मुखर्जी के साथ ‘संग्राम’ फ़िल्म में काम किया जिसके जीवन पर आगे चलकर उन्होंने ‘काग़ज़ के फूल’ (1959) फ़िल्म बनाई जो सेलुलोइड पर गुरुदत्त के अमिट हस्ताक्षर हैं। ये हिंदी सिनेमा की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म थी और डायरेक्टर के रूप में गुरुदत्त की आख़िरी फ़िल्म।
‘काग़ज़ के फूल’ में शैडो और लाइटिंग का जैसा इस्तेमाल गुरुदत्त ने किया है वो कोई आजतक नहीं कर सका। गुरुदत्त को शैडो और लाइट का जादूगर कहा जाता है वो चाहे ‘सीआईडी’ हो या ‘आर पार’ या फिर चाहे वो ‘हम आप की आँखो में इस दिल को बसा दें तो …’ गाने में धुआँ धुँआ होते जज़्बात हों! ‘काग़ज़ के फूल’ का वो आख़िरी दृश्य कौन भूल सकता है जब सिन्हा साहब गुरुदत्त एक गुमनाम एक्स्ट्रा की ज़िंदगी जीते हुए गलती से डायरेक्टर की कुर्सी पर खड़े होते हैं और निर्माता आकर नौकरों पर चिल्लाता है और कहता है कि ‘आज हीरोईन का आख़िरी सीन है, उठाओ इसे। मुर्दा क्या पहले कभी नहीं देखा।’
अपने समय के मशहूर और मारूफ़ डायरेक्टर की लाश पड़ी हुई है, शैडो और लाइट का वो इस्तेमाल और बैक ग्राउंड में ‘…मतलब की दुनिया है सारी .. बिछड़े सभी बारी बारी।’ कि आज भी दिल काँप उठता है। ये सिर्फ़ गुरुदत्त ही कर सकते थे। पर, ‘काग़ज़ के फूल’ फ़िल्म नहीं चली और गुरुदत्त का दिल टूट गया। कुल जमा 35 साल के थे गुरुदत्त और उनका दिल ऐसे टूटा की उन्होंने फ़िल्म डायरेक्ट करने से तौबा कर ली। हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर ने जिस तरह ‘मेरा नाम जोकर’ की असफलता से नाराज़ होकर ‘बॉबी’ बनायी थी उसी तरह गुरुदत्त ने ‘चौदहवीं का चाँद’ बनायी पर डायरेक्टर बनाया अपने दोस्त एम सादिक़ को। फ़िल्म सुपरहिट हो गयी और गुरुदत्त वहीदा की जोड़ी भी।
गुरुदत्त एक पूर्ण कलाकार थे । बहुत कम लोग जानते होंगे कि वो कोरियोग्राफ़र भी थे और चौदहवीं का चाँद का मशहूर गाना “मेरा यार बना है दुल्हा और फूल खिलें हैं दिल के ..” में जॉनी वॉकर को गुरुदत्त ने ही नचाया भी है।
चौदहवीं का चाँद 1960 में आयी और उसने सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। पर गुरुदत्त कहाँ थे, वो तो खो चुके थे। वो अपनी डायरेक्टर की छवि के मोह में उलझे हुए थे और घरेलू ज़िंदगी में पत्नी गीतादत्त और फ़िल्मी हीरोईन वहीदा के बीच पिस रहे थे। शराब और नींद की गोलियाँ उनके स्थायी साथी बन चुके थे।
फिर आई 1962 में ‘साहब बीबी और ग़ुलाम।’ गुरुदत्त के दोस्त अबरार अल्वी के डायरेक्शन में बनी इस फ़िल्म ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी जीता। पर, फ़िल्मफ़ेयर की वो काली गुड़िया गुरुदत्त को मुँह चिढ़ाती रही। गुरुदत्त फ़िल्म फ़ेयर डायरेक्शन के लिये चाहते थे पर उन्हें मिला निर्माता के रूप में साहब बीबी और ग़ुलाम फ़िल्म के लिए।
गुरुदत्त ने बाज़ी, जाल, आर पार, सीआईडी, मिस्टर एंड मिसेस 55 जैसी कई हिट फ़िल्में बनायीं पर ‘प्यासा’ और ‘काग़ज़ के फूल’ ने उन्हें अमर कर दिया।
जॉनी वॉकर, अबरार अल्वी, वी मुर्थी जैसे कई कलाकारों को गुरुदत्त ने स्टार बनाया।
1964 में एक रात अपनी पत्नी के वियोग में गुरुदत्त ने शराब और नींद की गोलियों के ओवरडोज से अपनी इहलीला समाप्त कर ली।
मात्र 39 की उम्र में गुरुदत्त दुनिया और फ़िल्मी दुनिया छोड़ गये।उनके ख़ास दोस्त देवानंद ने कहा कि गुरुदत्त यंग आदमी थे और उन्हें निराशावादी फ़िल्में नहीं बनानी चाहिये थीं। पर, गुरुदत्त समझ चुके थे कि ये दुनिया फ़ानी है। महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया ..”….ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है।”