अपनी भाषा अपना विज्ञान:आतिशबाजी
बिना फटाखों के दिवाली कैसी ? बचपन से आदत पड़ी है | पूरा conditioning हो चुका है | कितना आनन्द मिलता है | भला क्यों ? इसके पीछे मनोविज्ञान है |
अचानकता, अप्रत्याशितता और प्रत्याशितता का संयोग, चमत्कारिकता, रंगों का मेला, आवाजों का रोमांच, विस्फोट की प्रत्याशा में गुजरने वाले क्षण, कलात्मकता, डिजाइनों का संसार, भय और खतरा, उसके टल जाने से बार-बार आनंद मिलता, रिस्क उठाने की उत्तेजना, आदत पड़ जाना, आदतों से जुड़ी मधुर यादें, उन यादों को फिर से जी लेने की तमन्ना |
सफल फिल्मों की सूची साक्षी है कि भरत मुनि द्वारा लिखित, नाट्य शास्त्र में वर्णित नव-रसों में से “भय” भी मनोरंजन का वाहक है | भय, चमत्कार, शोर, विस्फोट आदि सभी कला के उपादान है | फिल्मों में आतिशबाजी का उपयोग प्यार, जीत, खुशी, देशभक्ति जैसी भावनाओं के साथ किया जाता है |
किंग्स कॉलेज लंदन की साइंस गैलरी के निदेशक डॉक्टर डेनियल ग्लेजर के अनुसार फायरवर्क्स के रंगों की छटा निराली होती है क्योंकि वह चलायमान और स्वदीप्त होती हैं | आमतौर पर हमारी आंखें रंगों को तब देखती है जब प्रकाश किरणे किसी स्थिर सतह से उभर कर हम तक पहुंचती है |
अनार, रॉकेट, चकरी, फुलझड़ी के रंग खुद चमकते हैं तथा चंचल होते हैं | शायद इसीलिए टूटे हुए तारे (वास्तव में उल्का या Meteor) को तथा फुदकने और लपझप करने वाले जुगनुओं को देखना बहुत अच्छा लगता है।
जब हम सुतली बम की बत्ती को हौले से सुलगा कर जल्दी से पीछे हट जाते हैं तब उत्तेजना के कुछ क्षणों में धुकधुकी होती है, थोड़ा सा डर लगता है, विश्वास रहता है कि कुछ खतरनाक नहीं होगा, शरीर में ढेर सारी एड्रीनलीन निकलती है, मस्तिष्क में भय के केंद्र ‘एमिग्डेला’ में भारी सक्रियता पाई जाती है और फिर होता है – बैंग | हम खुशी से चीख उठाते हैं, उछलते हैं, ताली बजाते हैं | अब ढेर सारा डोपामिन पैदा होता है, हमारे ब्रेन के रिवार्ड सिस्टम में | यह अनुभूति बार-बार पाने की इच्छा होती है | आदत सी पड़ने लगती है | एडिक्शन का हल्का स्वरूप होता है | जिसका परिपथ सिंगुलेट गायरस में से होकर पूरे लिम्बिक सिस्टम को समाहित करता है |
जी हां, वही लिम्बिक सिस्टम जो हमारी आदिम इमोशंस का संचारण करता है।
धीरे-धीरे इंसानों में फ्रांटल लोब नाम के बॉस हावी होने लगे | उन्होंने सीख देना शुरू करी | “यह गलत है” | “ऐसा मत करो”, “यह अनैतिक है” | “यह आदर्शों के विरुद्ध है” |
समाज में दोनों तरह के लोग रहते हैं | वह जिनका लिम्बिक सिस्टम वाला बचपना जाता ही नहीं तथा वे जिनका फ्रांटल लोब जरा ज्यादा ही कठोर अनुशासनप्रिय बॉस बन बैठता है | सब लोग हमेशा एक जैसे नहीं होते | वक्त वक्त की बात है | बदलती परिस्थितियों के साथ एक खेमे में से दूसरे खेमे में जाते रहते हैं | चुनरी पर चढ़ने वाले रंगों के शेड बदलते रहते हैं | अधिकांश लोगों में दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों का संतुलित मिश्रण होता है परंतु स्पेक्ट्रम के दो छोरों पर कम प्रतिशत एक्सट्रीम लोग पाए जाते हैं |
मुझे किशोरावस्था तक पटाखे में बारूद के जलने की गंध अच्छी लगती थी | उसे बार-बार सूंघने का मन होता था | फिर आकर्षण कम हो गया | मेडिकल में आने के बाद जाना कि सूंघने की लत वाली बीमारियों से पीड़ित मरीज भी होते हैं | मेरे एक कजिन का पोता बताता है, बड़े दादू मुझे दिवाली के धुंए की गंध अच्छी लगती है |
बारूद का आविष्कार लगभग 1000 वर्ष पूर्व चीन में हुआ था | उन्होंने पाया कि (शोरा / साल्टपीटर सज्जीखार/ पोटेशियम नाइट्रेट KHO3) के साथ सल्फर और शहद का मिश्रण ज्वलनशील और विस्फोटक होता है |
बांस की भोंगली में उक्त मिश्रण को भरकर दोनों सिरों को बंद कर देते थे और उसे आग पर तपाते थे । जोर के विस्फोट के साथ बांस के परखच्चे उड़ जाते | दर्शकों को मजा आता | फिर समझ में आया कि शहद के स्थान पर चारकोल (जला हुआ कोयला (शुद्ध कार्बन) भरने से आग, आवाज, धुआं, रोशनी चारों अधिक मात्रा में पैदा होते हैं | शहद में पानी भी होता है जो आग का शामक है | चारकोल एक बेहतर ईंधन है | पोटेशियम नाइट्रेट (शोरा) के एक अणु में ऑक्सीजन के तीन परमाणु है | ऑक्सीजन हवा में जितनी है ठीक है लेकिन यदि मसाले मैं खुद ऑक्सीजन का स्रोत मौजूद हो तो अग्नि को पंख लग जाते हैं | सल्फर स्वयं ज्वलनशील है और पीली आभा देता है |
निम्न अनुपात में मिश्रण के परिणाम श्रेष्ठ पाए गए थे –
चारकोल 15%
पोटेशियम नाइट्रेट 75%
सल्फर 10%
इसे “ब्लैक पाउडर” कहा गया चारकोल के कारण | बाद में नाम पड़ा “गन पाउडर” | तोपों में इसे भरा जाता | रासायनिक क्रिया को उत्प्रेरित करने के लिए तापमान ऊंचा होना चाहिए तथा मिश्रण के अवयवों को उच्च दबाव में भरा जाना चाहिए | कैनन बॉल्स [‘तोप के गोले’] इसी तरह बनाए जाने लगे | भारत में ‘गन पाउडर’ मुस्लिम आक्रांताओं के साथ आया | लगभग 1400 से 1500 ईस्वी के आसपास।
रासायनिक क्रिया –
74KNO3 + 96C + 30S + 16H2O | Þ |
35N2 + 56CO2 + 14CO + 3CH4 +
2H2S + 4H2 + 19IKCO3 + 7K2SO4 + 8K2S2O3 + 2K2S + 2KSCN + (NH)CO3 + C + S |
समीकरण के बायें भाग में वे यौगिक है जो रिएक्शन की शुरुआत के पहले मौजूद थे, दायें भाग में वे ढेर सारे यौगिक है जो रासायनिक क्रिया पूरी होने बाद पैदा होते है | इनमें से अनेक प्राणियों और वातावरण के लिये हानिकारक होते है |
मनोरंजन हेतु आतिशबाजी का चलन इसी के सामानांतर पनपा | एक समय ऐसा भी आया था जब औरंगजेब ने फरमान जारी करके आतिशबाजी पर रोक लगा दी थी |
कुछ लोग दावा करते हैं कि भारत में प्राचीन काल से ‘अग्नि क्रीड़ा’ का उल्लेख मिलता है | 2300 वर्ष पूर्व लिखित चाणक्य के अर्थशास्त्र में KNO3 को अग्निचूर्ण कहा गया है | वर्ष 600 AD में कश्मीर में लिखित नीलमाता पुराण में बताते हैं कि कार्तिक मास के 15 वें दिन (अर्थात दीपावली) अग्निक्रीडा द्वारा आकाश को आलोकित करते हैं, ताकि वे पितर (पूर्वज) जो श्राद्धपक्ष (महालया) में भूमि पर उतरे, उन्हें पुनः स्वर्ग लौटने का मार्ग प्रशस्त हो सके | वर्ष 700 AD में एक चीनी यात्री ने लिखा था कि “भारत के लोग अग्निचूर्ण हेतु वृक्षों की जली छाल और रेजिन को मिलाकर एक जहरीला धुआं बनाते हैं जो युद्ध भूमि में शत्रु को दिग्भ्रमित कर देता है | अग्निक्रीडा द्वारा बैंगनी रंग की सुंदर ज्वालायें, मनोरंजन हेतु पैदा की जाती है।”
वर्ष 1400 CE में एक इटालियन यात्री लुडोविको डी वर्थिमा ने वर्णन किया कि विजयनगर साम्राज्य के नागरिक अग्निक्रीडा में निष्णात थे | 1500 CE में उड़ीसा के संस्कृत कवि प्रताप रूद्र देव ने अपने ग्रंथ ‘कौतुक चिंतामणि’ में अग्नि चूर्ण बनाने की विधि का वर्णन किया |
दिवाली के साथ आतिशबाजी की परंपरा मुगलकाल में शुरू हो गई थी।
व्यावसायिक स्तर पर बारूद (गन पाउडर) बनाने वाली मशीनों द्वारा तीनों अवयवों को चक्की के भारी पाटों के बीच महीन रूप से पीसा जाता है, अच्छी तरह से मिलाया जाता है और खूब दबा दबा कर छोटे-छोटे गोलों में ठूस ठूस कर भर दिया जाता है।
सुतली बम का सिद्धांत यही है | छोटे से स्थान में बारूद के जलने से ऊष्मा निकलती है, तापमान बढ़ता है, गैसें निकलती है, दबाव बढ़ता है, रासायनिक क्रिया की गति तेज होती है, दबाव और तापमान और बढ़ता है, अंतत फटाका फूटता है | अनार, चकरी और रॉकेट में ईंधन जलने से निकलने वाली गैस और अग्नि के लिए एक मुंह खुला छोड़ दिया जाता है | न्यूटन द्वारा प्रतिपादित गति के तीसरे नियम के अनुसार गति/ शक्ति की विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है जो चकरी को घूमने के लिए तथा रॉकेट को ऊपर उड़ने के लिए प्रवृत्त करती है।
आतिशबाजी महज शोर नहीं है | उसमें प्रकाश भी है | बम पटाखे में शोर खास है, उजाला भी दिखता है परंतु वह उद्देश्य नहीं है | आकाश में होने वाले फायरवर्क्स में आवाज की बजाय चमकीली रोशनी का सौंदर्य अधिक मनमोहक होता है|
गन पाउडर में क्या संशोधन करें कि ढेर सारा देदीप्यमान प्रकाश निकले ? इसका इतिहास फोटोग्राफी से जुड़ा है | 100 साल पहले की पुरानी मूक फिल्मों को याद कीजिए | फोटोग्राफर्स अपने साथ भारी भरकम फ्लैश बल्ब लेकर चलते थे |
कुछ धातुओं (मैग्नीशियम, अल्युमिनियम) जलाने पर तेज उजाला निकलता है | फोटोग्राफर्स चाहते थे कि फ्लैश बहुत कम समय के लिए चमके | इसके लिए रसायनशास्त्रियों ने Mg++, Al+++ के साथ एक ऑक्सी कारक मिलाया “पोटेशियम परक्लोरेट” (KCLO4) जिसके एक अणु में ऑक्सीजन के चार परमाणु रहकर, ईंधन को त्वरित ज्वलनशीलता प्रदान करते हैं |
सफेद, चांदी जैसा प्रकाश अच्छा लगता है | दूसरे रंगों के लिए भिन्न धातुओं के लवण गनपाउडर के साथ मिलाए जाते हैं।
रंग-रसायन
लाल – स्ट्राशिज्यम नारंगी – केल्शियम पीला – सोडियम हरा – बेरियम नीला – कॉपर सफ़ेद – मैग्नेशियम, एल्युमीनियम, टाइटेनियम जामुनी – स्ट्रान्शियम + कॉपर |
आकाश में छोड़े जाने वाले फायरवर्क्स में निम्न भाग होते हैं –
A . फ्यूज (बत्ती) – जिसे सुलगाकर हम दूर हट जाते हैं | सूती डोरी को गन पाउडर में डुबोकर सूखाने से फ्यूज बत्ती बन सकती है | और भी विधियां है जो बत्ती के सुलगने की गति को नियंत्रित कर सकती है | आजकल बड़े व्यावसायिक या प्रतिस्पर्धात्मक प्रदर्शनों में रिमोट कंट्रोल से बिजली का स्विच ऑन करके फायरवर्क्स चलाए जाते हैं | फ्यूज बत्ती की जरूरत नहीं रहती | अब ऐसी फ्यूज बत्ती बनी है जो पानी में भी जलती है।
B . शेल (खोल) – ज्वलनशील विस्फोटक मसाला गत्ते के एक सख्त बंद खोल में रखा जाता है ताकि सुलगते सुलगते अंदर उच्च दबाव व तापमान की स्थिति निर्मित हो तथा अधिक आवाज व अधिक प्रकाश के साथ विस्फोट हो।
C . लिफ्ट चार्ज – शुरुआती धक्का देने के लिए पारंपरिक गनपाउडर या ब्लैक पाउडर का प्रयोग करते हैं जो खोल की पेंदी में रखा जाता है |
D . मोर्टार – एक लंबी भोंगली जिसमें खोल या शैल रखा जाता है | गन पाउडर के जलने से खोल को धक्का लगता है और वह तेजी से ऊपर आकाश में जाता है |
E . स्टार्स (सितारे) – खोल में अनेक स्टार्स भरे होते हैं | लघु खोल | इनमें अलग तरह का मसाला भरा होता है | स्पेशल इफेक्ट प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न धातुओं के लवण का उपयोग करते हैं | इन स्टार्स का अपना पृथक फ्यूज होता है जिसका टाइमर पहले से सेट कर सकते हैं ताकि वह तभी सुलगे जब बड़ा खोल ऊपर आकाश में पहुंचकर फूटने ही वाला हो |
F . बर्स्ट चार्ज – खोल के केंद्रीय भाग में स्थित गन-पाउडर जो स्टार्स को सुलगाता है |
G . Timed Fuse [समय बद्ध बत्ती] – खोल के अंदर स्थित स्टार्स के सुलगाये जाने वाले समय को नियंत्रित करने के लिये
कुदरत के सितारों की खूबसूरती अपनी जगह है | वे अनादि तथा अनंत है | इंसान के बनाये सितारों का नजारा जुदा है गोकि उनका वजूद चंद लम्हों के लिए होता है।
इनका प्रदर्शन किसी कलाकारी से काम नहीं | पीछे वैज्ञानिक दिमाग लगता है | कितने सारे पहलुओं को कंट्रोल किया जाता है –
- प्रकाश की तीव्रता – जितनी ज्यादा उतनी आकर्षक
- छटा की अवधि – द्रुत और विलंबित दोनों का अलग आनंद है |
- रंगों की बिसात – अनगिनत शेड के लिए रसायनों के मिश्रण
- स्पेशल इफेक्ट – पापकार्न जैसे फटना, या तीर जैसे चलना या छितर जाना, झप झप करना
- आवाजों की सिंफनी – बूम, धडाम, फटफट, चट चट या लंबी सीटी
- आकाशीय दायरा – और ऊंचा, और ऊंचा, और बड़ी छतरी, और बड़ी छतरी
फायरवर्क की श्रेणिया
- Indoor – इमारत के अंदर
- Garden – छोटे बगीचे में, पांच मीटर की दूरी से देख सकते है
- Display – खुले इलाके में 25 मीटर की दूरी से
- Professional – बड़े मैदान में, व्यावसायिक संस्थाओं द्वारा
जापान में प्रतियोगिता
ओमागिरी और सुचिउआरा में जापानी अग्निक्रीडा उत्सव और प्रतियोगिता देखने प्रतिवर्ष लाखों दर्शक आते हैं | पायरो टेक्नीशियन (अग्नि क्रीडा विशेषज्ञ) नई-नई तकनीक और डिजाइनों के साथ आतें है | सबसे ज़ोर की आवाज, सबसे सुंदर रंग, कलात्मकता, संगीत के साथ जुगलबंदी जैसी अनेक श्रेणियां में पुरस्कार दिए जाते हैं |
आतिशबाजी और प्रदूषण
इनमें कोई शक नहीं कि फायरवर्क्स के बाद कुछ दिनों तक हवा, पानी और सतह पर अनेक नुकसानदायक पदार्थों की मात्रा बढ़ जाती है जो समय के साथ कम हो जाती है |
पोटेशियम परक्लोरेट (जिसमें ऑक्सीजन के तीन परमाणु होने से वह ज्वलनशीलता बढ़ाता है) आसपास की नदी, कुएं, तालाब आदि के पानी में घुलकर मछलियों, अन्य जीवों और मनुष्यों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता है | कार्बन डाइऑक्साइड तथा कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसें जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों की वाहक बनती है | वायुमंडल में सुरक्षा प्रदान करने वाली ओजोन परत को नुक्सान पहुचता है | नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड जैसी गैसें पानी में घुलकर उसे अम्लीय [एसिडिक] बनाती है | सांसों में मिलकर अस्थमा, ब्रोंकाइटिस को बढ़ावा देती है, और पार्टिकुलेट मैटर (कणीय पदार्थ) की सांद्रता बढ़ाती है।
आतिशबाजी के बाद अनेक घंटे या दिनों तक वायुमंडल में पार्टिकुलेट मैटर [कणीय पदार्थ] की मात्रा बढ़ जाती है | PM 10 [वे कण जिनका आकार 10 माइक्रोन से कम हो] तथा PM [2.5 जो ढाई माइक्रोन से भी लघु हो] | एक माइक्रोन अर्थात एक मिलीमीटर का हजारवां हिस्सा| श्वास के साथ जब ये PM शरीर में प्रवेश करते हैं तो श्वसन तंत्र और हृदय तंत्र पर बुरा असर डालते हैं | धातुओं के महीन कण भी पार्टिकुलेट मैटर में रहते हैं और घातक प्रभाव डालते हैं| अनेक विकसित देशों में फायरवर्क्स में ज्यादा नुकसानदायक मेटल के उपयोग पर प्रतिबंध है जैसे कि सीसा, क्रोमियम, एंटीमनी | लेकिन आशंका है कि कम विकसित देशों में कम सावधानी बरती जाती हो।
ध्वनि प्रदूषण के प्रति व्यक्तियों और प्राणियों (कुत्ते, गाय) की सहनशीलता अलग-अलग होती है | शोर के स्तर (डेसीबल) तथा अवधि पर नियंत्रण रखने के नियम बनाए जा सकते हैं | Elite लोगों के “प्योर-ब्रीड” डॉग बहुत संवेदनशील होते हैं | हमारी गलियों के “स्ट्रीट-डॉग” कम|
आतिशबाजी के दुष्परिणामों को कम करने के उपाय
हजार साल पहले चीन में बासों से अग्नि क्रीडा को बढ़ावा मिला था |
ना रहे बांस, ना बजे बांसुरी |
आतिशबाजी बंद हो जाए तो प्रदूषण में थोड़ी राहत मिले |
लेकिन इसके अलावा कुछ अन्य उपाय भी है | शिवाकाशी, तमिलनाडु में जहां सर्वाधिक पटाखे बनाते हैं, भारत सरकार ने एक अनुसंधान केंद्र स्थापित किया है जो बेहतर तथा अधिक सुरक्षित उत्पादों के विकास पर काम करता है
पर-क्लोरेट के स्थान पर नाइट्रोजन युक्त ईंधन बेहतर मानते हैं |
फटाखों में प्रयुक्त खोल [शैल] के आकार की सीमा बांधी जा सकती है | धूल-नियंत्रक का उपयोग करते हैं | बेरियम और अल्युमिनियम का प्रयोग वर्जित करते हैं |
लेजर शो के द्वारा फायरवर्क्स जैसी कलाकारी प्रदर्शित कर सकते हैं | उसके साथ एक साउंड ट्रैक भी चला सकते हैं | लेकिन जलते हुए बारूद की भीनी गंध, सुलगते हुए अनार की महिम गर्मी, फुलझड़ी की तड़-तड़ाहट, रस्सी बम को सुलगाने के बाद कुछ क्षणों का भय मिश्रित रोमांच, इन सब की कमी अखरती है |
मेरे बचपन में, पड़ोस के दोस्त ने कहा था “मेरे बाबूजी ने मेरे लिए सौ रुपए के पटाखे खरीदे”, तेरे पापा ने कितने के दिलाये ?
“बीस रुपये के” ।
मेरे पापा समझाते थे “बेटा पटाखे चलाना मतलब पैसों में आग लगाना है | तुम्हारा दोस्त जलाएगा, तुम देख कर आनंद लेना”|
मैं चुप रह जाता | अपने हाथ से चलाने का मजा अलग होता है | मन भरता नहीं था | पटाखों के डब्बों, खोकों, अधजले कागजों का ढेर लगा कर रावण और लंका बनाते थे। उसमें आग लगाते थे। कुछ साबुत लड़ियाँ मिल जाती तो लगता खजाना मिल गया | छोटी लड़ी को बीच में मोड़कर (V) आकर देते, उसके सिर को सुलगा कर बची खुची बारूद की सुर्री जलाने का आनंद लेते थे | रतलाम में अगली सुबह जल्दी 5-6 बजे उठकर फिर से बचे हुए पटाखे छोड़ने का रिवाज था | थोड़े से पटाखे को देवउठनी ग्यारस [छोटी दिवाली] के लिए बचाकर रख लेते थे | चकरी के लिए माँ एक परात (बड़ी थाली जिसकी चौड़ी किनारी हो) और रॉकेट के लिए लंबी बोतल दिया करती थी।
हाल ही में दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अनेक बस्तियों में खूब पटाखे छोड़े गये | क्या हमारे नागरिक वास्तव में बहुत गैर-जिम्मेदार हैं ? मैं नहीं जानता | फिर भी कहना चाहूँगा कि जब समाज का एक छोटा, संभ्रांत, अभिजात्य, प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग Holier than thou का attitude रखते हुए उपदेशात्मक शैली में virtue signaling करता है, चुन चुन कर एक रिलिजन विशेष के त्यौहारों की बुराइयों पर टिप्पणी करता है तो बहुत से लोगों में एक प्रतिक्रिया पैदा होती है जिसे मनोविज्ञान की भाषा में कहते हैं – Revenge Psychology,
खैर, अन्त में, हल्के फुल्के मुड में : “असली आतिशबाजी तो इश्कबाजी है जो बकौल ग़ालिब, जलाये न जले, बुझाये न बुझे |”