अपनी भाषा अपना विज्ञान – नमकीन विज्ञान
‘नमक’ का मानव सभ्यता, इतिहास, संस्कृति और दैनिक जीवन में अनूठा स्थान है। नमक पर ढेर सारी कहावतें है। मनुष्य को शक्कर का चस्का बहुत बाद में लगा। चीनी अपने वर्तमान स्वरूप में हमारे लिए अनिवार्य नहीं है। भोजन में मौजूद कार्बोहाइड्रेट, पाचन प्रक्रिया द्वारा ग्लूकोज में परिवर्तित होकर, शक्कर की एक इधन के रूप में जरुरत को पूरा कर देते है।
चीनी एक विलासिता की वस्तु है जो एक लत या Addiction के समान है।
नमक की चुटकी भर मात्रा हमारे भोजन में होना अनिवार्य है। हमारे प्राकृतिक भोज्य पदार्थों में थोडा बहुत नमक होता है लेकिन कम पड़ता है। प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य अन्य प्राणियों के समान यहाँ वहां नमक के स्त्रोत ढूंढता होगा। सागर किनारे वालों के लिए आसान था। भूमि के अन्दर, दूरस्थ, पहाड़ी इलाकों में मुश्किल थी। कहीं कहीं खारे पाणी की झीले मिल जाती थी तो कहीं चाटते चाटते मालुम पड़ता कि नमकीन चट्टानें भी होती है।
विभिन्न धर्मों के कर्मकांडों में नमक का स्थान महत्वपूर्ण रहा है। नमक बर्बाद नहीं करना चाहिए, इस सन्देश के लिए कहते थे कि थाली में छोड़े गए नमक को बाद के जीवन में पलकों से सवेरना पड़ेगा।
हमारी जीभ और मुंह में स्वादों की पांच इन्द्रियाँ मानी जाती है – मीठा, खट्टा, कड़वा, उमामी और नमकीन। उमामी के बारे में लोग कम जानते हैं लेकिन उसकी चर्चा और कभी।
आज का विषय नमक है।
‘नमक’ का स्वाद महसूस करने वाली इंद्रियां दो प्रकार की होती है –
- कम मात्रा में ‘नमक’ की उपस्थिति को पता लगाना, जो हमें “स्वादिष्टता” का एहसास कराती है, उक्त भोजन को अधिक मात्रा में खाने के लिए प्रेरित करती है, क्योंकि प्रतिदिन नमक की एक सीमित मात्रा का सेवन हमारे स्वास्थ्य और जीवन के लिए अनिवार्य है।
- ‘नमक’ की अधिक मात्रा को परखने वाली इंद्रियां जो हमें बहुत ज्यादा खारे भोजन को खाने से रोकती है, क्योंकि शरीर में नमक या उसके “सोडियम” तत्व की मात्रा का बढ़ जाना स्वास्थ्य के लिए घातक होता है।
एक महीन सा संतुलन बना रहता है। ना ज्यादा, न कम।
मीठा, कड़वा और उमामी स्वादों के बारे में शोध द्वारा जाना गया है कि जीभ पर “त्रि-रिसेप्टर” मौजूद होते हैं। अर्थात ‘ग्राही’। जो जटिल संरचना वाले यौगिकों के अणु होते हैं। ताले और चाबी के जोड़े के माफिक जब किसी स्वाद को धारण करने वाले भोज्य पदार्थ के अणु उपरोक्त रिसेप्टर के अणु की त्रिआयामी संरचना से मेल खा जाते हैं तो “खुल जा सिम सिम” की तर्ज पर Taste-Bud का दरवाजा खुल जाता है। वहां की कोशिकाएं उद्दीप्त होकर नर्वस (नाड़ियों) के माध्यम से विद्युत रासायनिक संकेतो की एक झड़ी दिमाग तक भेजते हैं। दिमाग में खुद का एक जटिल सिस्टम है जो सूचनाओं के इस अम्बार में से कुछ पैटर्न ढूंढ निकाल लेता है और हमारी चेतना को अनुभव कराता है – ‘वाह क्या यमी स्वाद है!’
खट्टेपन का एहसास भोजन के Ph से होता है। ‘Ph’ अर्थात “अम्लीयत से लेकर क्षारीयता” तक का पैमाना। एसिडिक पदार्थ का Ph कम की दिशा में होता है जो “खट्टापन” की अनुभूति कराता है।
नमक अणु का फार्मूला है – NaCl.
Na अर्थात सोडियम एक परमाणु और Cl क्लोरीन का एक परमाणु मिलकर NaCl का एक अणु बनाते हैं। नमक एक लवण है। जीवन के लिए जरूरी है। जीवन की उत्पत्ति नमक के बिना संभव नहीं थी। तीन अरब वर्ष पूर्व धरती पर जो समुद्र था उस [Primordial] आदिकालीन सूप में अमीनो अम्ल, नमक, कैल्शियम, फास्फोरस, ग्लूकोज जैसे गिने चुने अवयवों के प्रायोगिक संलयन से जीवन के आरंभिक स्वरूप (बैक्टीरिया) पनपे थे।
समस्त कोशिकाओं के अंदरूनी और बाह्य द्रव की सांद्रता में एक महीन अंतर को बनाए रखना पड़ता है। कोशिका की बाहरी झिल्ली में से सोडियम और पोटेशियम के आवागमन को कंट्रोल करने वाले द्वारों का खुलना और बंद होना, इस सूक्ष्म संतुलन को साधे रखता है। धनात्मक और ऋणात्मक आवेश वाले आयनों (Na+, K+, Cl–,Oh–) का अंदर बाहर होना कोशिकाओं की उद्दीपनशीलता(Excitability) का आधार बनता है। यही उद्दीपनशीलता (मांसपेशीय) कोशिकाओं को संकुचनशीलता (Contractility) का गुण प्रदान करती है और न्यूरॉन कोशिकाओं को सूचना प्रसंस्करण तथा संग्रहण का गुण (Information Processing and Storage)
कहने का मतलब यह है कि तीन अरब वर्ष पहले के महासागरों में उद्धव होने वाले प्रथम एक कोशीय जीवों से लेकर, मेरे मस्तिष्क की न्यूरॉन कोशिकाएं, जो इस क्षण मुझसे यह पंक्तियां लिखवा रही है, उनकी कार्य विधि के मूल आधार में सोडियम क्लोराइड का आना-जाना लगा हुआ है।
शरीर में सोडियम या उसके नमक रूपी साल्ट की सांद्रता के स्तर का नियंत्रण एकाधिक उपायों द्वारा संभव होता है –
- भोजन में सेवन
- किडनी की कोशिकाओं द्वारा इस बात का कंट्रोल कि पेशाब में कितने सोडियम को निकल जाने दिया जावे
- चमड़ी की ग्रंथियों द्वारा पसीने के माध्यम से नमक का बाहर निकलना।
यदि नमक का सेवन बढ़ जावे तो रक्त में सोडियम की सांद्रता को कम रखने के लिए पानी का सेवन भी बढ़ जाता है। ऐसे में खून का कुल आयतन ज्यादा हो जाने से ब्लड प्रेशर बढ़ता है, जिसके दुष्प्रभाव हमारी धमनियों की अंदरूनी सतह पर पढ़ते हैं और हार्ट अटैक, ब्रेन अटैक की आशंका बढ़ाते हैं।
यदि रक्त में सोडियम की मात्रा कम होने लगे तो व्यक्ति को कमजोरी महसूस होती है, लो बी.पी. हो सकता है, मांसपेशियों में Cramps (ऐंठन, मरोड़) आते हैं। इसलिए हम देखते हैं कि खिलाड़ी, एथलीट, धावक आदि गेटोरेड या मिलता जुलता नमकीन शरबत पीते रहते हैं।
जीभ की सतह पर सोडियम की मात्रा परखने वाली कोशिकाओं की कार्य प्रणाली पर शोध में एक अप्रत्याशित सुराग 1980 के दशक में किडनी पर काम करने वाले वैज्ञानिकों के काम से मिला। एक ऐसी औषधि पर प्रयोग चल रहे थे जो किडनी की कोशिकाओं में सोडियम के प्रवेश को रोकते हैं।उच्च रक्तचाप (High BP) के इलाज में ऐसी दवाइयां कारगर हो सकती है। इसी रसायन को जब चूहों की जबान पर लेपा गया तो नमकीन स्वाद महसूस करने की उनकी क्षमता जाती रही।
किडनी की कोशिकाओं के बारे में मालूम था कि उनके अंदर E-Nac(ई-नाक) नामक एक यौगिक होता है जो रक्त में से अतिरिक्त सोडियम को खींचकर, पेशाब के रास्ते शरीर से बाहर कर देता है। वैज्ञानिकों ने सोचा और सही सोचा कि क्यों ना जीभ की Taste Bud की कोशिकाओं में भी ‘ई-नाक’ की भूमिका होती होगी।
वैज्ञानिकों ने चूहों की जेनेटिक इंजीनियरिंग कुछ इस तरह करी कि उनके हजारों जींस में से केवल एक जीन जो E-Nac रिसेप्टर के निर्माण को निर्देशित करती है, उस जीन को निष्क्रिय कर दिया जावे। प्राणियों की जेनेटिकली परिवर्तित पीढ़ियों को Knock-out मॉडल कहते हैं। ये चूहे नमक के स्वाद को भूलकर, जीवन के जितना सोडियम जरूरी है उसे नहीं ले पा रहे थे।
प्रयोग द्वारा चूहों में नमक की चाहत नापने के लिए यह देखा गया कि वे प्यासे होने पर सादे पानी और नमकीन पानी में से किसकी अधिक बार चुसकी लेते हैं । बायीं तरफ के ग्राफ में दर्शाया गया है कि रक्त में सोडियम कम हो जाने की स्थिति में सामान्य चूहे नमकीन पानी की तरफ जाते हैं जबकि ENac ग्राह्य से वंचित जमात ऐसा कोई भेद नहीं कर पाती। दायीं और के चार्ट में उन चूहों पर अध्ययन के परिणाम चित्रित किये गए है जिनके रक्त में सोडियम की मात्रा बढ़ी हुई थी तथा जिनसे उम्मीद थी कि वे नमकीन पानी से परहेज करेंगे। इस व्यवहार पर ENac होने न होने का कोई प्रभाव नहीं देखा गया । बल्कि अन्य प्रकार के स्वाद-रिसेप्टर(कड़वा, खट्टा) से वंचित चूहों के बारे में पाया गया कि वे नमकीन पानी फिर भी पिये जा रहे थे।
नेशनल इंस्टिट्यूट आफ क्रेनियोफेशियल रिसर्च,बेथेस्डा, मेरिलैंड, U.S. की न्यूरो वैज्ञानिक निक रीबा ने बताया कि हमारे सम्मुख प्रमुख प्रश्न था – “जीभ की स्वाद-कलिकाओं में सोडियम का प्रवेश, ऐसी कौन सी विद्युतीय तरंगे, ब्रेन तक भेजता है जो वहां जाकार ‘वाह क्या स्वाद है’ जैसे सन्देश में अनुवादित हो जाती है ।
जीभ पर बिखरे पड़े स्वाद-रिसेप्टर में E-Nac की मौजूदगी ढूंढने के लिल्ये वैज्ञानिकों को बहुत मशक्कत करनी पड़ी क्योकिं किडनी में ENac के तीन स्वरूपों में से कहीं भी तीनों एक साथ नहीं पाये गए, जो कि ये Signal भेज पाये। अनन्तः क्योटो विश्वविद्यालय जापान के अकियुकी तरुनो की टीम ने उक्त Receptors को 2020 में ढूंढ निकाला।
जीभ पर मौजूद स्वाद कलिकाओं द्वारा नमक का ‘स्वादिष्ट’ लगने वाला स्वाद विशेष प्रकार की कोशिकाओं द्वारा महसूस किया जाता है, जिनका कि गुण होता है कि वे सोडियम की उपस्थिति को धर पकड़ें। ENac अणु एक चैनल के माफिक काम करता है जिसके रास्ते धनाताम्क आवेश वाले सोडियम आयन कोशिका की झिल्ली नुमा दीवाल में सेंध मारकर भीतर प्रवेश करतें हैं । इनका आगमन कोशिका में निर्धुविकारण(Depolarization) की क्रिया द्वारा Action Potential (सक्रिय विभव) पैदा करता है जो जीभ से निकल कर मस्तिष्क तक पहुंचने वाली Nerves (नाड़ियों) पर अपनी द्रुत गति यात्रा संपन्न करता है।
लेकिन उपरोक्त शोधों से इस बात का उत्तर नहीं मिला कि भोजन या पेय पदार्थ का अधिक खारे होने की अनुभूति की फिजियालाजी क्या हैं ?
अन्य अध्ययनों से अनुमान लगाया जाता है कि नमक के अणु (NaCl) के दूसरे परमाणु या आयन (Cl– ) [क्लोराइड] की इसमें भूमिका हो सकती है।
मेरीलैंड, यू.एस. की निक रीबा की टीम ने 2013 में पता लगाया कि सरसों के तेल में कोई अवयव है जो ‘नमक के अधिक होने’ की अनुभूति को कुंद करता है। एक और मजेदार बात यह मालूम पड़ी कि उक्त अवयव ‘कड़वा’ और ‘खट्टा’ स्वाद भी कम करवाता है।
जिनेटिकली परिवर्तित चूहों में कड़वा और खट्टा चख पाने की क्षमता कम थी, वे खूब खारे पन को भी आसानी से सहन कर पा रहे थे।
उक्त अवलोकनों और संभावित निष्कर्षों की प्रति पुष्टि होना बाकी है । विज्ञान का काम इक्का-दुक्का प्रायोगिक परिणामों से नहीं चलता है।
वर्ष 2021 में जापानी वैज्ञानिकों की एक टीम ने TMC4 नामक आण्विक चैनल धारण करने वाली कोशिकाओं को चीन्हा जो क्लोराइड के ऋणात्मक आवेश वाले आयनों को अन्दर प्रवेश करवाने में मदद करते हैं। प्रयोगशाला की परखनलियों में टिशु कल्चर में उग रही TMC4 धारी कोशिकाओं में नमक की अधिक सांद्रता के प्रति Reaction पायी गई। लेकिन जेनेटिकली परिवर्तित चूहें जिनमें TMC4 रिसेप्टर मिटा दिया गया था, उनमें अति खारे पन के प्रति वितृष्णा नहीं देखी गई।
एक अनुमान यह भी लगाया गया है कि शायद ENac का ही एक अतिरिक्त चौथा स्वरूप होता है (डेल्टा उप-इकाई) जो चूहों में नहीं पाया जाता लेकिन मनुष्यों में कार्यरत होता है।
इस समस्त शोध का प्रेक्टिकल महत्व बहुत ज्यादा है। शोधकार्ताओं का सपना है कि नमक के ऐसे स्वरूप विकसित किये जावें जो स्वाद में उत्तम हो लेकिन हाई बी.पी. न करवायें।
चुटकी भर नमक का मानव स्वास्थ्य के लिए महत्व उसके राजनैतिक महत्व के समानांतर परिलक्षित होता है। इतिहास साक्षी है कि अनेक युद्ध इसके लिए लड़े गए। साम्राज्यों का उत्थान और पतन हुआ। महात्मा गाँधी की दांडी यात्रा और नमक सत्याग्रह, नमक जैसी सस्ती जीवनोपयोगी वस्तु पर कराधान द्वारा शोषक मनोवृत्ति के खिलाफ अहिंसक आन्दोलन का अप्रतिम उदाहरण था।
उम्मीद करें कि दुनिया के कोने कोने में प्रयोगशालों और क्लिनिक्स में जारी शोधों द्वारा हम मनुष्य की उस लिप्सा पर लगाम लगानेवाले उपायों को खोज पायेंगे जो उसकी आदिम कमजोरी के चलते ‘स्वादिष्टता’ की चाहत में ‘नमकीन और नमकीन’ की चिकनी फिसलन भरी ढलान पर आगे बढ़ने से रोकेंगे।
क्या करें, मज़बूरी है। सब लोग भगवान् महावीर, बुद्ध या गांधी जैसे संयमशील बन नहीं पाते। इसलिए विज्ञान को तारणहार बनना पड़ता है।