बूफे यानी गिद्धभोज

202

बूफे यानी गिद्धभोज

मुकेश नेमा

पता नहीं बूफे की इज़ाद किसने और क्या सोच कर की ? ये गिद्धभोज बड़ी वजह हैं हमारी पंगतो को देश निकाला मिलने की। पंगतें याद है ना आपको ? हमारे गाँव देहातों के सामूहिक भोज।बाँस के बंबुओ के सहारे खड़े टेंट। टेंट मे बिछी टाट पट्टियाँ। टाट पट्टियों पर पाल्थी मार कर बैठे लोग। सामने बिछी पत्तलें। पत्तल बनी होती थी हरे हरे पत्तों से। पत्तों के ही बने दोने ,जो कटोरी का काम करते थे। इन पत्तलो और दोनों मे परसोईए परोसते थे गरम गरम खाना। खाने की गिनी चुनी ,जानी पहचानी क़िस्में। आलू मटर टमाटर, चने और कद्दू की सब्ज़ी, भिंडी, भरवाँ बैंगन, पूरी, रायता। सेव बूँदी के साथ गुलाबजामुन या लड्डू। मनुहार करते परोसिए, जो आपको भूख से ज़्यादा खिलाये बिना मानते नही थे। रही सही कसर पूरा करता था पड़ोस मे बैठा आपका दोस्त। अरे यार भैया को लड्डू तो और परोस। ऐसे मे आपका फ़र्ज़ बन जाता था कि आप भी उसकी पत्तल मे एक्स्ट्रा गुलाबजामुनो का इंतज़ाम करें।

कुल मिलाकर ये पंगते बेहद आत्मीयता भरी, शुद्ध, शांत और पर्यावरण हितैषी व्यवस्था हुआ करती थी। आदमी का पेट भी भरता था और मन भी। यारों दोस्तों, से मेल मुलाक़ात भी हो जाती थी और पुराने ठंडे होते रिश्तों में गरमाहट भी चली आती थी।

अब आज के चीख़ते चिल्लाते, बेरुख़े गिद्धभोजों का जायज़ा लें। डीजे। कान को कान सुनाई न दे ऐसा शोर। फिर ढके डोगों मे रखे छप्पन व्यंजनों से भरी औपचारिक टेबलें। टेबलों के पीछे मनहूस चेहरा लिये खड़े जादूगरों की ड्रेस पहने अपरिचित बंदे। गोलगप्पों के स्टॉल के सामने हाथ फैलाए खड़ी लड़कियाँ। एक दूसरे को जहर की तरह देखती महिलाएँ और बेचैन बुजुर्गवार। खाने से ज्यादा खाने की नुमाइश। पचासों तरीक़े के खाने, पच्चीसों तरह की मिठाइयाँ। धक्का मुक्की करती, खाने पर टूटी पड़ती भुखमरी भीड़। गले गले तक भरे ऐसे लोग जो बिना आगे पीछे देखे बिना, बस अपनी प्लेट भर लेना चाहते है।

और फिर सूरतेहाल क्या होती है? पूड़ियाँ गुलाबजामुन के रस मे तैरती है। गुलाबजामुन झल्ला कर दही में डूब मरता है।पापड़ प्लेट से कूद कर ख़ुदकुशी करने को मजबूर होता है। कोफ्ते बिरयानी पर चढ़ बैठते है और चिकन भिंडी से लड बैठता है। गिरता पड़ता सलाद खुद की शक्ल नहीं पहचान पाता और रोटियों को पाँव टिकाने की जगह भी नही मिलती। बूफे के इस महाभारत में प्लेटें आपस में टकराती है। आपके कोट की बाँहें दाल से हाथ मिला लेती हैं । लिट्टी रसमलाई से जोड़ा बनाती है और नाराज चोखा लापता हो जाता है। साड़ियाँ चटनियों से और सूट आईसक्रीम से लिथडते हैं। भाभियाँ अनमनी होती है और आंटियाँ दुखी हो जाती है। आप आखरी तक तय नही कर पाते कि आप चाहते क्या थे और प्लेट किन चीज़ों से भर लाये हैं। आख़िरकार आप निराश होते है। भरी प्लेट डस्टबिन के हवाले की जाती है।आमतौर पर बंदा या तो ज़्यादा खा जाता है या भूखा घर लौटता है।

ऐसे वल्ड वॉर में जान कैसे बचाई जा सकती है? पहला तरीक़ा। आप सबसे पहले प्लेट उठायें। किसी का लिहाज़ न करें। बारात हो, तेरहवी हो, यदि आपने बेखटके, बिना संकोच पहली प्लेट उठा ली तब तो मैदान मार लिया आपने। कुछ लोग कन्फ्यूज होंगे, कुछ पीछे चले आयेंगे आप। पर यह तय है कि भीड़ होने के पहले आप खा पीकर, हाथ धो चुके होंगे। यदि आप साहब है या ताजे ताजे जवान हुए हैं, तब तो यह सबसे बेहतरीन तरीक़ा है।

यदि लोक लिहाज़ से डरते है, हिम्मत की कमी है आपमें, तो दूसरा तरीक़ा आज़माइये। घर से अपनी मूँगदाल रोटी खा कर जाइए। अपनी जीभ को लगाम देकर समझा लें मन को कि बुढ़ापे में मिले धक्के सेहत के लिये अच्छे नहीं होते। और अपनी मिट्टी कुटवाने से बेहतर है कि घर से पेट भर कर जायें और भीड़ भडक्के से इज़्ज़त बचा कर वापस लौटें।

आखिर में आपको यह भी बता दें कि बूफे की हिंदी क्या है? इसका मतलब है थप्पड़/ घूँसे/धक्का/धक्के मारना/लड़ना/ धक्का मुक्की करना। यदि भरोसा न हो तो ऑक्सफोर्ड की डिक्शनरी पलट लीजिए। कुल मिलाकर आफत है ये और यह आप पर है कि आप इससे कैसे निपटते हैं।