प्रसंग : रामनवमी माथे पर जब तिलक हो सिंदूरी तो क्या कहने!

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प्रसंग : रामनवमी

माथे पर जब तिलक हो सिंदूरी तो क्या कहने!

वाणी जोशी

केंद्र बिंदु के अंदर जितने प्राण हैं, उतने ही प्राण बाहर भी हैं। जब माथे पर सिंदूरी तिलक लगा हो, मन में प्रभु श्री राम हो, राम नाम की धूनी रमे तब क्या राजा क्या रंक! चला चले चल सत्य मार्ग पर रज-रज में प्रभु श्रीराम है। यूं ही नहीं हृदय में राम बस जाते हैं, हृदय चीर कर दिखाने जितना प्रेम होना चाहिए। केवल तिलक सिंदूरी होना ही पर्याप्त नहीं, सीमा से बाहर मन सिंदूरी हो, तब प्रभु श्रीराम मिलते हैं। कर्म ही पूजा का महामंत्र सिद्ध करने वाले, महलों का सुख त्याग कर मार्ग में केवट और शबरी की मुस्कान बन जाने वाले ही प्रभु श्रीराम की दयालुता का प्रमाण मिलता है।

राम होना सरल नहीं है। राम होने के लिए राम होना पड़ता है। हम राम तो नहीं हो सकते, क्योंकि राम जब राम थे तो वह केवल राम थे। उनके भीतर बुराई कण मात्र भी नहीं थी। हम अच्छाई के प्रतीक प्रभु श्रीराम तो नहीं बन सकते। किंतु दिन के किसी भी हिस्से में क्षण भर के लिए ही रामत्व को अपना लेने से यह जीवन सफल हो जाएगा। इस रंगमंच रुपी जीवन में हम न जाने कितने किरदार निभाते हैं। हम राम होते हैं या नहीं, लेकिन कभी रावण अवश्य बन जाते हैं। आओ संकल्प कर अपने भीतर के रावण को खत्म करें और दुनिया को देखें। हम सब कुछ देख कर सही और गलत का निर्णय लें सकें, सही पथ को चुन सकें और दूसरों की गलतियों से सीख कर खुद वे गलती न दोहराएं।

मैं, मैं और मैं के भाव से ऊपर आकर हम को अपनाते हैं, तब जाकर कहीं हम किसी के आदर्श तो नहीं किंतु अध्यात्म के एक कदम और पास पहुंच जाते हैं। परिधि बनना सही है, किंतु कभी-कभी त्रिज्या बन जाना भी अच्छा होता है। क्योंकि त्रिज्या बनकर ही हम केंद्र बिंदु के और करीब चले जाते हैं और अंततः केंद्र बिंदु क्या है ध्यान, साधना, प्रार्थना, अध्यात्म सभी केवल उस दूरी को तय करने के लिए ही तो है तिलक में ही तो समाहित है। अगर वैज्ञानिक तौर पर देखा जाए तो उसी स्थान पर हमारी पीनियल ग्रंथि होती है जिसके दबने से हम एकाग्रता की ओर जाते हैं। ज्यादा नहीं बस थोड़ा सा मन के भीतर जाने की आवश्यकता है।

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हां रघुवर मिलेंगे या नहीं इसकी पुष्टि तो नहीं किंतु पौराणिक कथाओं जिसमें कल्पनाशीलता का भी पुट निश्चित रूप से है। जिसमें मृगतृष्णा, लक्ष्मण रेखा एकाकी भाव से अलग है, जैसे एक नन्ही गिलहरी का राम सेतु में बहुमूल्य योगदान, पवनपुत्र का सीना चीर कर दिखाकर श्रीराम के प्रति समर्पण का भाव, बालपन में ही सही किंतु ज्ञान अर्जित किए हुए नन्हें बालकों का एक राजा से एक स्त्री को न्याय दिलाने के लिए अपने कला कौशल से एक रचनात्मक व्यवहार ऐसे न जाने कितने चरित्र चित्रण हमें रामायण के माध्यम से देखने, सुनने और सीखने को भी मिलते हैं। इस रामनवमी पर न केवल तन से अपितु मन से सिंदूरी होने का। मनसे सिंदूरी हो जाने से तात्पर्य इस नश्वर शरीर के चोले पर सिंदूर लगा लेने से नहीं है।

एक तिलक सिंदूरी हो और भगवा एक दुपट्टा।
तिलक लगा हो जब मस्तक पर और रामत्व का भाव हो,
दृष्टि विचार और मन निर्मल हो भाव सभी सम-भाव हो।

कई बार सिंदूरी तिलक का भी जिक्र किया है। आप सोच रहे होंगे प्रभु श्रीराम की वंदना, ध्यान और तिलक में सिंदूरी रंग का क्या लेना। सनातन धर्म की जब बात हो और तिलक न हो, तो हिंदुत्व की पहचान कैसे होगी। कोई भी शुभ कार्य करने से पहले हम मस्तक पर तिलक लगाते हैं। हमारी दोनों भौंहों के बीच नासिका के ऊपर जो स्थान है इसे आज्ञा चक्र कहते हैं या विचारों का केंद्र भी। साइंस की अगर बात की जाए तो वैज्ञानिक तौर पर हमारी पीनियल ग्रंथि भी वहीं पर होती है। वेदों में इसे पूजा-उपासना से जोड़ तो दिया गया है। किंतु वैज्ञानिक कारण भी सीधा-सीधा ही है। अब तक श्रीराम की बात करते ही चंदन ध्यान में आता है। क्योंकि, वह शीतलता का प्रतीक है। किंतु बात सिंदूर की है। कुछ प्रमुख संप्रदाय शाक्त, वैष्णव और शैव में शिव के उपासक हैं। शैव संप्रदाय, विष्णु के उपासक वैष्णव संप्रदाय एवं आदिशक्ति के उपासक शाक्त संप्रदाय से माने जाते हैं यह विषय बहुत लंबा है। हम बात करते हैं केवल शाक्त संप्रदाय की।

आदिशक्ति के उपासक सिंदूर को प्रमुखता से लगाते हैं इसे सुंदरता का प्रतीक भी माना जाता है। देवी के कई रूप होते हैं शांत रूप भी, और उग्र रूप भी। सिंदूर उग्रता का प्रतीक भी है जो आपके तेज को बनाए रखता है। जब प्रभु श्रीराम भी बुराई पर अच्छाई की जीत के चरण में युद्ध के अंतिम चरण में रावण का वध करने से पहले वाली रात्रि में देवी अपराजिता की साधना करते हैं उनकी पूजा करते हैं। तब देवी को सिंदूर चढ़ाकर प्रसन्न करते हैं। प्रभु श्रीराम को अपने ह्रदय में बसा लेने वाले हनुमान जी ने जब एक बार मां वैदेही को सिंदूर लगाते हुए देख पूछा कि मां आप यह सिंदूर क्यों लगा रही हो तब माता ने जवाब दिया कि यह मेरे पति की लंबी आयु के लिए, अपने चित्त को शांत करने के लिए एवं अपने ध्यान में केवल प्रभु श्रीराम को रखने के लिए मैंने लगाया है। सिंदूर की महिमा जानने के बाद से हनुमान जी पूरे सिंदूरी हो गए। तो सभी मिलकर आदिशक्ति को सिंदूर चढ़ाएं और चाहे तन से सिंदूरी न हो पाए पर मन से सिंदूरी हो जाए।