कानून और न्याय: भारतीय संविधान और मानवाधिकारों का संरक्षण

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कानून और न्याय: भारतीय संविधान और मानवाधिकारों का संरक्षण

प्रत्येक मनुष्य की एक गरिमा होती है। उसे गरिमामय जीवन जीने का पूरा अधिकार है। इसलिए मानव अधिकारों की रक्षा के लिये ही भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया है। संविधान निर्माताओं ने भारत के संविधान में दुनियाभर के संविधानों का अध्यन कर उनमें से मोती चुन-चुन कर सम्मिलित किए है। इसी कारण भारतीय संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है।

मानवाधिकार वे अधिकार हैं जो किसी भी व्यक्ति को जन्म के साथ ही प्राप्त होते हैं। किसी भी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता और प्रतिष्ठा का अधिकार ही मानव अधिकार है। इनमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जैसे अन्य कई अधिकार भी शामिल हैं। इन्हीं अधिकारों के संबंध में संयुक्त राष्ट्र ने सन् 1948 में एक घोषणा-पत्र जारी किया था। इस घोषणा पत्र में कहा गया था कि मानव के बुनियादी अधिकार किसी भी नस्ल, जाति, धर्म, लिंग, समुदाय और भाषा आदि से भिन्न होते हैं।

‘मानवाधिकार’ शब्द का प्रयोग 20वीं शताब्दी में किया गया था। इसके पहले अधिकारों के संदर्भ में ‘प्राकृतिक अधिकार’ अथवा ‘व्यक्ति के अधिकार’ शब्द प्रचलन में थे। प्रसिद्ध दार्शनिकों ग्रेशियस, हॉब्स और लाॅक ने बताया था कि प्राकृतिक अधिकारों का मुख्य आधार प्राकृतिक कानून हैं। यह कानून प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता तथा संपत्ति का सम्मान करने की बात कहते हैं। जाॅन लाॅक ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दी टू ट्रीटसेज ऑन गवर्नमेंट’ में इन प्राकृतिक सिद्धांतों का उल्लेख किया है।

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सन 1776 में अमेरिका द्वारा स्वतंत्रता के संबंध में जारी किए घोषणा पत्र में भी कहा गया था कि सभी व्यक्ति समान पैदा हुए हैं तथा दुनिया बनाने वाले ने उन्हें जीवन, स्वतंत्रता तथा सुख की प्राप्ति जैसे कुछ शाश्वत अधिकार प्रदान किए हैं। बाद में सन् 1789 में फ्रांस द्वारा मानव और नागरिक अधिकार का घोषणापत्र जारी किया गया। इन देशों ने अपने नागरिकों को ये अधिकार एक व्यक्ति होने के नाते प्रदत्त किया था। 17वीं और 18वीं शताब्दी में प्राकृतिक अधिकारों से संबंधित जो घोषणाएं की गई थी, 20वीं शताब्दी में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार घोषणा पत्र और इससे संबंधित कई अन्य समझौतों के माध्यम से उन्हीं का और विस्तार किया गया।

मानवाधिकार वे मूल अधिकार है जो मनुष्य के रूप में उसके विकास का अनिवार्य हिस्सा हैं। संविधान मौलिक अधिकारों तथा नीति निदेशक सिद्धांत के रूप में मूल अधिकारों के रक्षक के रूप में कार्य करता है। संविधान में मौलिक अधिकारों पर बल दिया गया है। ये अधिकार विधिक रूप से याचिकाओं के माध्यम से सीधे लागू होते हैं। भारतीय संविधान के भाग तीन और भाग चार के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि मानव अधिकारों पर सार्वभौमिक घोषणा में प्रदान किए गए लगभग सभी अधिकार इन दो भागों में शामिल हैं। न्यायपालिका ने सुने जाने के अधिकार के नियमों को शिथिल भी किया है। प्रभावित लोगों के स्थान पर कोई अन्य व्यक्ति भी न्यायालय में याचिका प्रस्तुत कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक नागरिक को उपलब्ध मौलिक अधिकारों की व्याख्या की है। इन फैसलों के कारण निजता के अधिकार, पर्यावरण के अधिकार, मुफ्त कानूनी सहायता के अधिकार, निष्पक्ष निशान के अधिकार जैसे अनेक अधिकारों को भी मौलिक अधिकारों में स्थान मिला है। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय उदार रहा है तथा इन अधिकारों की विवेचना में व्यापक दृष्टिकोण अपनाया है।

वैसे तो मानव अधिकारों की कोई एक निश्चित संख्या नहीं है। लेकिन, विविध प्रकार के समाजों में जैसे-जैसे नए खतरे और चुनौतियां सामने आ रही हैं, वैसे-वैसे मानवाधिकारों की सूची लगातार बढ़ती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र के सार्वभौमिक घोषणा पत्र में 30 अनुच्छेद हैं, इनमें मानवाधिकारों को सामान्य तौर पर नागरिक- राजनीतिक और आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणियों में बाॅंटा गया है। इसके अनुच्छेद-3 में व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं सुरक्षा के अधिकारों की बात कही गई है। घोषणा पत्र में अनुच्छेद 4 से लेकर अनुच्छेद 21 तक नागरिक व राजनीतिक अधिकारों के बारे में विस्तार से बताया गया है।

इनके अंतर्गत आने वाले अधिकारों में दासता से मुक्ति का अधिकार, निर्दयी, अमानवीय व्यवहार अथवा सजा से मुक्ति का अधिकार, कानून के समक्ष समानता का अधिकार, प्रभावशाली न्यायिक उपचार का अधिकार, आवागमन तथा निवास स्थान चुनने की स्वतंत्रता, शादी करके घर बसाने का अधिकार, विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, उचित निष्पक्ष मुकदमे का अधिकार, मनमर्जी की गिरफ्तारी अथवा बंदीकरण से मुक्ति का अधिकार, न्यायालय द्वारा सार्वजनिक सुनवाई का अधिकार, अपराधी साबित होने से पहले बेगुनाह माने जाने का अधिकार, व्यक्ति की गोपनीयता, घर, परिवार तथा पत्र व्यवहार में अवांछनीय हस्तक्षेप पर प्रतिबंध, शांतिपूर्ण ढंग से किसी स्थान पर इकट्ठा होने का अधिकार, शरणागति प्राप्त करने का अधिकार, राष्ट्रीयता का अधिकार, अपने देश की सरकारी गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार तथा अपने देष की सार्वजनिक सेवाओं तक सामान पहुॅंच का अधिकार सम्मिलित है। साथ ही सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, समान काम के लिये समान वेतन का अधिकार, काम करने का अधिकार, आराम तथा फुर्सत का अधिकार, शिक्षा तथा समाज के सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने का अधिकार भी सम्मिलित है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मानवाधिकारों का भारी उल्लंघन किया गया था। इस कारण से भविष्य में मानवाधिकारों के संरक्षण हेतु ठोस व्यवस्था किये जाने की जरूरत महसूस हुई है। 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को स्वीकार कर लिया। सामान्य सभा ने सभी सदस्य देशों से इस घोषणा-पत्र को प्रसारित करने का आह्वान किया था। मानवाधिकारों की रक्षा से संबंधित संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में 48 देशों ने हस्ताक्षर किए थे, जिसमें भारत भी शामिल था। लेकिन, भारत में मानवाधिकारों से जुड़ी एक स्वतंत्र संस्था बनाने में 45 वर्ष लग गए। एक सर्वे के मुताबिक, दुनिया में मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के मामलों में इजिप्ट, सीरिया, यमन, चीन, ईरान, उत्तर कोरिया, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, बरूंडी, काॅंगो गणराज्य, बर्मा, लीबिया, वेनेजुएला, इरीट्रिया, रूस और नाइजीरिया शीर्ष पर हैं।

भारत ने 1 जनवरी, 1942 को यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑन हयूमन राइट्स पर हस्ताक्षर किए थे। संविधान का भाग तीन जिसे मैग्ना कार्टा भी कहा गया है में मौलिक अधिकार शामिल हैं। ये ऐसे अधिकार हैं जो किसी भी उल्लंघन के मामले में राज्य के खिलाफ सीधे लागू करने योग्य हैं। अनुच्छेद 13(2) राज्य को मौलिक अधिकारों के विपरीत अथवा उसके विरूद्ध कोई कानून बनाने से रोकता है। यह इस बात की व्यवस्था करता है कि अगर कानून का कोई भी हिस्सा मौलिक अधिकारों के खिलाफ है, तो उस हिस्से को शून्यवत घोषित किया जा सकता है। यदि शून्यवत भाग को मुख्य अधिनियम से अलग नहीं किया जा सकता है, तो पूरे अधिनियम को शून्यवत घोषित किया जा सकता है। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हो सकती है। लेकिन, यह बताता है कि भारत ने उस समय मानवाधिकारों की प्रकृति को कैसे समझा था, जब संविधान को अपनाया गया था।

भारत का संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को बुनियादी मानवाधिकारों की गारंटी देता है। संविधान के जानकार कानूनविदों ने आवश्यक प्रावधानों को पूरा करने में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है। निरंतर विकास के साथ, मानव अधिकारों के क्षितिज का भी विस्तार भी हुआ है। 24 जनवरी 1947 को, संविधान सभा ने सरदार पटेल के साथ अध्यक्ष के रूप में मौलिक अधिकारों पर एक सलाहकार समिति बनाने के लिए मतदान किया था। डॉ बीआर अंबेडकर, बीएन राऊ, केटी शाह, हरमन सिंह, केएम मुंशी और कांग्रेस विशेषज्ञ समिति द्वारा अधिकारों की मसौदा सूची तैयार की गई थी। इसमें कुछ संशोधन भी प्रस्तावित थे। लेकिन, इसमें शामिल सिद्धांतों पर कोई विशेष असहमति नहीं थी। मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में अधिकार लगभग पूरी तरह से भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों या राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों में शामिल थे। उन्नीस मौलिक अधिकारों को मोतीलाल नेहरू समिति की रिपोर्ट, 1928 में शामिल किया गया था। इसमें से दस मौलिक अधिकारों में दिखाई देते हैं। इनमें से तीन मौलिक कर्तव्य के रूप में दिखाई देते हैं।