Silver Screen: ‘ऑस्कर’ की आस में आखिर कब तक इंतजार!
भारत की फिल्मों की दुनियाभर में धाक है! लेकिन, बरसों से दर्शकों का मनोरंजन करने वाली भारतीय फ़िल्में ऑस्कर पाने से आखिर क्यों चूक जाती है। क्या इसका कारण सही फिल्मों का चयन न होना, ठीक से लॉबिंग न होना है या भारत में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की फ़िल्में न बनना! कारण जो भी हो, इससे भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की साख पर उंगली उठ रही है। इस बार भी कैलिफोर्निया के लॉस एंजेलिस के डॉल्बी थिएटर में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री फीचर की कैटेगरी में ‘द समर ऑफ सोल’ को ऑस्कर मिला। भारतीय फिल्म ‘राइटिंग विद फायर’ अवार्ड जीतने में नाकामयाब रही। ये पहली बार नहीं हुआ, बरसों से हो रहा है। 1956 में जब से ‘बेस्ट फॉरेन लेंग्वेज कैटेगरी’ वाली फिल्मों को अवार्ड देने की शुरुआत की गई, तभी से भारत का रिकॉर्ड ख़राब रहा। भारत से भेजी जाने वाली फ़िल्में हमेशा विवादों से घिरी रही। सीधे शब्दों में कहा जाए तो हम अभी तक समझ ही नहीं सके कि ऑस्कर पाने वाली फ़िल्में कैसी होती है!
हमारे यहां कभी राजनीतिक कारणों से तो कभी किसी को खुश करने के लिए फिल्मों का चयन किया जाता रहा है। इसका सबसे सटीक नमूना है 1996 में इंडियन, 1998 में ‘जींस’ और 2019 फिल्म ‘गली बॉय’ को अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्म कैटेगरी में भारत से भेजा जाना। क्या इन फिल्मों का स्तर इस लायक था कि इन्हें ऑस्कर में भेजा जाता! ये आज भी रहस्य है, कि इन फिल्मों को किसने और क्यों चुना! 2007 में भी ‘एकलव्य : द रॉयल गार्ड’ फिल्म को लेकर भारी बवाल मचा था। जब ‘बर्फी’ फिल्म का चुनाव ऑस्कर के लिए किया गया, तब भी बहुत हल्ला मचा था। ‘बर्फी’ के बारे में कहा गया था कि इस फिल्म के कई सीन विदेशी फिल्मों की साफ-साफ़ नक़ल है। ‘न्यूटन’ फिल्म पर आरोप लगे थे कि कि ये एक ईरानी फिल्म ‘सीक्रेट बैलट’ की नक़ल है।
1957 से अभी तक भारतीय फिल्में ‘बेस्ट फॉरेन लेंग्वेज फिल्म’ श्रेणी के लिए भेजी जा रही हैं। लेकिन, केवल तीन बार हमारी फिल्में ऑस्कर के अंतिम पांच दावेदारों में जगह बना सकी! मदर इंडिया (1957), सलाम बॉम्बे (1988) और लगान (2001) ही वे भाग्यशाली फ़िल्में रही, जो अंतिम पांच तक पहुंची, पर जीत नहीं सकी। आजतक किसी भारतीय फिल्म ने ऑस्कर नहीं जीता! केवल ‘गांधी’ (1982) और ‘स्लमडॉग मिलिनेयर’ (2008) जैसी दो विदेशी फिल्मों के लिए भानु अथैया, गुलजार, एआर रहमान और रसूल पुकुट्टी जैसे लोगों को अलग-अलग विधाओं में ऑस्कर से नवाजा जरूर गया। इसके अलावा सत्यजीत रे को 1992 में ऑस्कर का ‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’ दिया गया। लेकिन, जो सम्मान किसी भारतीय फिल्म को मिलना चाहिए, उससे अभी भारतीय फिल्मकार अछूते हैं। ‘फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया’ को सही फिल्म का चयन न करने, पक्षपात करने और राजनीति से प्रभावित होने के लिए उंगली उठाई जाती रही है। कहा जाता है कि हमेशा ही भेजी जाने वाली फिल्म के चयन में देर की जाती है। इस कारण इन फिल्मों को ऑस्कर के अनुरूप तैयारी का मौका नहीं मिलता।
जहां तक पक्षपात की बात है तो कई बार ये कारण सही भी नजर आए। 2013 में जब रितेश बत्रा की ‘द लंच बॉक्स’ के ऑस्कर में भेजने पर अंतिम पांच फिल्मों में आसानी से जगह बनाने की उम्मीद की जा रही थी, तब गुजराती फिल्म ‘द गुड रोड’ जैसी दोयम दर्जे की फिल्म को भेजा गया। 2012 में ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर और ‘पान सिंह तोमर’ जैसी फ़िल्में छोड़कर ‘बर्फी’ को चुना गया। 2007 में ‘तारे जमीं पर’ और ‘चक दे इंडिया’ जैसी बेहतरीन फिल्मों को नजरअंदाज करके विधु विनोद चोपड़ा की ‘एकलव्य : द रॉयल गार्ड’ भेजकर अपनी नासमझी का परिचय दिया।
हद तो तब हुई, जब 1998 में तो ऐश्वर्या राय की ‘जींस’ को ऑस्कर में भेज दिया। इसके अलावा ऑस्कर अवार्ड के लिए कमजोर लॉबिंग भी एक कारण है जिस कारण अभी हमारी फ़िल्में ऑस्कर की ट्राफी को छू भी सकी। जब भी हमने अच्छी फिल्में भेजीं, ऑस्कर ने उन्हें भी ठुकरा दिया। न्यूटन, विसरनई, कोर्ट, विलेज रॉकस्टार्स के अलावा ‘रंग दे बसंती’ (2006), ‘बैंडिट क्वीन’ (1994) से लेकर ‘गाइड’ (1965) और अपू ट्रायोलॉजी की तीसरी फिल्म द वर्ल्ड ऑफ अपू’ (1959) तक ऐसा कई-कई बार होता रहा! फिर आखिर चूक कहां होती है, ये ऐसा सवाल है जिसका जवाब खोजा जाना है!
ऑस्कर में भारत की सबसे सशक्त दावेदारी आशुतोष गोवारिकर की ‘लगान’ की रही। उस साल ये फिल्म ऑस्कर जीतते-जीतते रह गई। कोई भारतीय फिल्म इस कैटेगरी में अवार्ड नहीं जीत पाया! इसके पीछे क्या हमारी चयन प्रक्रिया में खोट है! क्या किसी खास मूड की फिल्म का ही चयन किया जाता रहा है! यदि ऐसा नहीं है, तो क्या फिर फिल्म के चयन में कोई पक्षपात किया जाता है! इन सवालों का जवाब शायद किसी के पास नहीं मिलेगा!
‘लगान’ से पहले ‘मदर इंडिया’ और ‘सलाम बॉम्बे’ का चयन भी इसी कैटेगरी के लिए हुआ था। लेकिन, एनवक्त पर ये फ़िल्में बाहर हो गई! भारत की तरफ से भेजी गई पहली फिल्म ‘मदर इंडिया’ को नामांकन मिला। यह फिल्म विधवा औरत की मुसीबत, गरीबी में अपने दो बच्चों का पालन करने वाली पीड़ित भारतीय नारी की परिभाषा तय करती हैं। अपनी बेहतरीन अदाकारी से नरगिस ने राधा की इस भूमिका में जान डाल दी थी। अपनी अदाकारी के लिए नरगिस को तब ‘कार्लोवी वेरी इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल’ में भी ‘बेस्ट एक्ट्रेस’ का अवॉर्ड मिला था। लेकिन, यह फ़िल्म ‘ऑस्कर’ से वंचित रही।
भारत से जाने-माने फ़िल्मकारों की भी फ़िल्में भेजी गई! पर, किसी को अवार्ड के लायक नहीं समझा गया। इनमें 1959 में सत्यजीत राय की ‘अपूर्व संसार’ और 1962 में गुरुदत्त की ‘साहिब बीवी और गुलाम’ को भी भेजा गया था! लेकिन, इन्हें भी नकार दिया गया। देश के बंटवारे पर 1974 में बनी एमएस सथ्यू की फिल्म ‘गर्म हवा’ और इसके बाद समानांतर सिनेमा के प्रतिनिधि श्याम बेनेगल की ‘मंथन’ (1977) को भी नामांकन से वंचित रहना पड़ा था!
1965 में देव आनंद की ‘गाइड’ को भी ‘ऑस्कर’ ने नकार दिया! जबकि, इसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सर्वकालीन लोकप्रिय फिल्म माना गया। इसके बाद कला और संगीत-नृत्य से ताल्लुक रखने वाली लोकप्रिय भारतीय फ़िल्मे ‘ऑस्कर’ के लिए भेजने का विचार आया! इसके तहत वैजयंती माला अभिनीत ‘आम्रपाली’ (1966) से डिंपल कपाड़िया की ‘सागर’ (1985) और बाद में संजय लीला भंसाली की ‘देवदास’ (2000) भेजी गई, पर कोई नतीजा नहीं निकला।
ऑस्कर में अवार्ड पाने की प्रक्रिया बेहद मुश्किल है, इस बात से इंकार नहीं! वास्तव में यह प्रक्रिया भारतीय फिल्मों के लिए आसान भी नहीं। फिल्म के अमेरिका पहुंचने के बाद उसे एकेडमी अवॉर्ड्स के ज्यूरी सदस्यों को अंग्रेजी सबटाइटल्स के साथ दिखाना होता है। बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज श्रेणी में दुनियाभर से आईं कई फिल्मों में से पहले चरण में 9 फिल्में शॉर्टलिस्ट होती हैं, दूसरे चरण में इनमें अंतिम पांच चुनी जाती है! अंतिम चयन इन्हीं पांच में से होता है। ऑस्कर पुरस्कार देने के लिए 6 हज़ार ज्यूरी सदस्य 24 श्रेणियों में बंटी फिल्मों को देखकर वोटिंग करते हैं। यह पूरी प्रक्रिया इतनी जटिल होती है, कि इसके लिए एकेडमी पिछले 80 से ज्यादा सालों से प्राइस वाटरहाउस कूपर्स (पीडब्लूसी) नामक अकाउंटिंग फर्म और उनके अकाउंटेंट्स की सेवाएं ले रही है!
यह सुझाव भी सामने आया कि हमारी आंचलिक फिल्मों के विषय, कथानक और निर्देशन स्वाभाविकता की दृष्टि से ज्यादा बेहतर होता हैं। इस दृष्टिकोण से अच्छे आंचलिक सिनेमा का चयन किया जाना शुरू हुआ। हालांकि, सत्यजीत रॉय की समकालीन बंगाली फिल्म ‘महानगर’ (1963) का झुकाव भी इसी पर केंद्रित था। इसके बाद शिवाजी गणेशन की तमिल पारिवारिक ‘देवा मगन’ (1969), विधवा और ऑटिस्टिक व्यक्ति की तेलुगु संवेदनशील ‘स्वाती मुथ्यम’ (1985) को भेजा गया, पर कोई अंतर नहीं आया! मानसिक रूप से विकलांग बच्ची पर मणिरत्नम की तमिल फिल्म ‘अंजलि’ (1990), कैंसर ग्रस्त पोते की दृष्टि जाने से पहले उसे जीवन की रंगीनियत दिखाने वाले बुजुर्ग की सत्यकथा पर बनी मराठी फिल्म ‘श्वास’ (2004) और मलयालम सामाजिक फिल्म ‘एडमिंटे माकन अबू’ (2011) भी ‘ऑस्कर’ में भेजी, पर निराशा ही हाथ लगी। ऐसे में ‘द गुड रोड’ जैसी दोयम दर्जे की गुजराती फ़िल्म का ‘ऑस्कर’ के लिए भेजा जाना, इसी का एक नतीजा था। कई बार आंचलिक विषयों के प्रति फिल्मकारों का झुकाव भी नजर आया। मलयालम फिल्म ‘जल्लिकट्टू’ (2019) का भेजा जाना इसी का संकेत था। जहां चुनाव होने वाले हों, उस इलाके की भाषाई फिल्म को भेजने का फैसला सीधा-सीधा राजनीति ही तो है। तमिल फिल्म ‘कुझांगल’ के बारे में भी यही नजरिया था! इन सारी सच्चाइयों का नतीजा ये है कि हमारे यहाँ अभी भी अच्छी फिल्मों की कमी है, जो ऑस्कर जीतकर ला सके!