चुनाव अनुभव से सबक लेकर क्रन्तिकारी बदलाव की चुनौती
लोक सभा चुनाव में इस बार राजनैतिक दलों ने हर मोर्चे पर नए रिकॉर्ड बना दिए | प्रचार अभियान , खर्च , वायदों , आरोपों प्रत्यारोपों ने चुनाव आयोग के समक्ष शिकायतों का अंबार लगा दिया | संभव है चुनाव परिणाम आने पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर नई संसद में फिर से सुधारों की आवाज उठे | प्रधान मंत्री ने तो 1 जून के अंतिम मतदान से पहले एक इंटरव्यू में पुनः ” एक देश एक चुनाव ” के लिए सहमति बनाने का अभियान तेज करने की घोषणा कर दी | वह यह बात जून 2019 में भी कह चुके थे और फिर उनकी सरकार ने सचमुच पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविद की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय समिति बनाई और विभिन्न स्तरों पर विचार विमर्श , तथ्य और क्रियान्वयन की कई सिफारिशों वाली रिपोर्ट दे दी है || दिलचस्प बात यह है कि सामान्य जनता भी पंचायत , नगर पालिका – निगम , विधान सभा और लोक सभा के चुनावों के चक्कर से परेशान होने लगी है | लेकिन कांग्रेस सहित प्रतिपक्ष के अनेक दल इस मुद्दे पर विचलित होकर विरोध करने लगते हैं | उनका सबसे बड़ा भय यह है कि इस व्यवस्था से प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी केंद्र के साथ अधिकांश राज्यों में शक्तिशाली हो जाएगी |
सवाल यह है कि चुनाव के दौरान निरंतर व्यवस्था पर आरोप और शिकायत लगा रहे राजनैतिक दल चुनाव सुधारों , नई टेक्नोलॉजी ,सोशल मीडिया , करोड़ों के खर्च , गंभीर अपराधों में चार्जशीट को टिकट न देने , राज्यों में मतदाता सूची बनाने से लेकर मतगणना तक के इंतजाम में सुधार आदि के लिए भी संसद में सर्वानुमति से प्रस्ताव पारित काने को तैयार होंगे ? एक देश एक चुनाव का मुद्दा नरेंद्र मोदी ने अपने वर्चस्व के लिए नहीं उठाया है | मुझे याद है 2003 में तत्कालीन उप राष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत ने सार्वजानिक रुप से यह सुझाव दिया और तब भी हिंदी आउटलुक साप्ताहिक के अपने सम्पादकीय कालम में इसके समर्थन में लिखा था | तब मोदी दिल्ली से दूर गुजरात के मुख्यमंत्री थे और किसीको उनके प्रधान मंत्री बनने का कोई संकेत नहीं था | केंद्र में भी अटल बिहारी वाजपेयी गठबंधन के प्रधान मंत्री थे | शेखावतजी ने तर्क दिया था कि ‘ चुनाव एक साथ होने से चुनावों के भारी खर्च में कमी आएगी और सरकार दबाव में नहीं रहेगी | हर वर्ष दो तीन राज्यों में विधान सभा के चुनाव होने से केंद्र सरकार भी जनता से जुड़े विषयों पर कड़े निर्णय नहीं ले पाती | ‘
देश में एक साथ चुनाव का विरोध इसलिए बेमानी है क्योंकि देश में 1952 , 1957 , 1962 और 1967 में लोकसभा तथा विधान सभाओं के चुनाव एकसाथ ही हुए थे | संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव आंबेडकर , जे बी कृपलानी , जवाहरलाल नेहरु, राममनोहर लोहिया , दीनदयाल उपाध्याय , चंद्रशेखर , ज्योति बसु जैसे नेता इन चुनावों में जीतते या हारे भी थे | अब तो इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन और अन्य डिजिटल सुविधाएं आसान हो गई हैं | बूथ और वोट लूटने की घटनाएं अस्मभव सी हो गई हैं | हाँ चुनावी खर्च बढ़ता गया है |
इसमें कोई शक नहीं कि भारत के चुनाव सम्पूर्ण विश्व में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के आदर्श हैं और महानगरों से लेकर सुदूर गांवों तक मतदाता अधिक सक्रिय और जागरुक हो गए हैं | वे चुनाव में पार्टी और उम्मीदवार का हिसाब विकास के आधार पर लेने लगे हैं | हाँ भारी खर्च , झूठे वायदों और चुनाव के बाद सांसद या विधायक द्वारा अपने क्षेत्र पर ध्यान नहीं दिए जाने पर उसकी नाराजगी दिखती है | सत्तारुढ़ नेता ही नहीं देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों ने कई महत्वपूर्ण सिफारिशें चुनाव सुधार के लिए कर रखी हैं | खासकर पार्टियों , उम्मीदवारों , उनके समर्थकों – संस्थाओं , कंपनियों और अप्रत्यक्ष विदेशी तत्वों द्वारा सारे नियम कानून और आचार संहिता को चतुराई से बचाकर करोड़ों के खर्च एवं अन्य हथकंडों पर अंकुश के लिए 4 जून के बाद बनने वाली नई सरकार , संसद , चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट को निर्णय करने होंगे |
इस बार मतदान के दिन अन्य क्षेत्रों में प्रधान मंत्री सहित अन्य नेताओं की सभाओं , रैलियों और अंतिम दौर में तो नरेंद्र मोदी के कन्याकुमारी के विवेकानंद स्मारक में ध्यान लगाकर मौन रहने पर भी प्रतिपक्ष ने चुनाव नियम आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप लगा दिया | लेकिन मौन ध्यान के फोटो वीडियो पर आपत्ति अजीब सी लगाती है | यह तो पारदर्शिता है कि देश को अपने नेता के बारे में सूचना मिले और कुछ हद तक प्रेरणा भी मिल सके | इसी तरह पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा आरक्षण में मुस्लिमों को लाभ देने और उनके पहले अधिकार के वक्त्वयों पर विवाद है | सिंह ने देर से कुछ स्पष्टीकरण दिया है | लेकिन राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे इस मुद्दे पर उनके ही वरिष्ठ सहयोगी सलमान खुर्शीद द्वारा पिछले चुनावों में मुस्लिमों को 9 प्रतिशत आरक्षण देने के वायदे की सार्वजिक घोषणा तो रिकॉर्ड पर है | चुनाव आयोग को मिली शिकायत का विवरण तो पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाय कुरैशी ने अपनी पुस्तक में भी दिया है | मतलब मनमोहन सिंह सरकार के कानून मंत्री ने इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया था | इसलिए भाजपा ने इस विषय को बड़े जोर शोर से उठाया | धर्म , जाति के आधार पर आरक्षण का विवाद आचार संहिता के आधार पर अनुचित कहा गया | इस चुनाव में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से एक असाधारण बात यह हुई कि जेल से एक मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत दे दी गई | चुनाव प्रचार ख़त्म होने के तत्काल बाद 2 जून को समर्पण कर वापस जेल जाने का फैसला हुआ था | लेकिन दिल्ली , पंजाब सहित विभिन्न राज्यों में प्रचार के अनितम दौर में सहानुभूति वोट के फॉर्मूले पर केजरीवाल ने जमानत की अवधि बढ़ाने का प्रचार शुरु कर दिया | यही नहीं जनता से भी सहानुभूति के लिए अपनी दिल्ली सरकार के अधीन तिहाड़ जेल में पर्याप्त दवाई , चिकित्सा नहीं मिलने , बुजुर्ग माता पिता , भगत सिंह की तरह आजादी के लिए बलिदान देने जैसे वीडियो और मीडिया में इंटरव्यू जारी किए | अब पंजाब में उनका विरोध कर रही कांग्रेस क्या इस अंतिम प्रचार की शिकायत चुनाव आयोग से कर सकेगी ? इस दृष्टि से अगले चुनवों से पहले चुनाव व्यवस्था में सुधार , पहले से पारित संसद विधान सभा में महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण और समान नागरिक कानून जैसे निर्णय और उनके क्रियान्वयन के लिए व्यापक सहमति बनानी होगी |