
मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता-
पिता को लेकर mediawala.in ने शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता।इस श्रृंखला की 55 th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है,इस शृंखला की सम्पादक ,सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. स्वाति तिवारी को। दरअसल वे पिताजी पर एक पुस्तक लिखना चाहती थी। थोड़ा बहुत कई बार उनके लेखन में आता रहा है और यही से उन्हें लगा परिवार और माता पिता ही वह साँचा होते है जिसमें व्यक्तित्व गढ़े और सँवारे जाते हैं। माँ पर अक्सर लोग अपनी भावनाएं व्यक्त कर देते हैं पर पिता पर लिखने के अवसर कम ही आते है तो क्यों ना हम यह अवसर सामने लायें।स्वाति ने बहुत ही संवेदना और शिद्दत के साथ इस काम को सतत किया। स्वाति अक्सर अपने वक्तव्य में अपने साक्षात्कारों में पिता से मिले साहित्यिक रुझान से उनके मन में कहानियों की गीली मिटटी तैयार होने का जिक्र करती रही हैं। उनके माता पिता दोनों शिक्षक थे। पिताजी ने अपने बच्चों और उनके भी बच्चों को पचासों कहानियाँ सुनाई हैं। लोगों के जीवन की ,जगह की ,तारों और सितारों की, नदी -पहाड़ तक की। उनके पिताजी के पास ना केवल जानकारियाँ थी ,बल्कि उन्हें सुनाने की कला भी थी। ज्ञान और कला दोनों ही सरस्वती की कृपा होती है -वह उन्हें भरपूर मिली थी। उन्होंने जीवन में बड़े से बड़ा दुःख भी सहन किया लेकिन कभी प्रकट भी नहीं होने दिया। एक अलग अनूठा व्यक्तित्व था उनका। उन्हें याद कर अपनी भावांजलि दे रही हैं उनकी बेटी डॉ. स्वाति। – सुरेश तिवारी प्रधान संपादक
55. In Memory of My Father-Pandit Deenanath Vyas: पिता के विलक्षण व्यक्तित्व के कुछ रंग -स्वाति तिवारी
वे कभी अमेरिका नहीं गए थे, फिर कैसे इतना कुछ शब्दशः वर्णन कर देते थे जैसे वहीं खड़े हों? उनके शब्द मेरे कानों में गूँज रहे थे ‘नदी और उसकी सहायक नदियों ने उस क्षेत्र को परत-दर-परत काटा होगा और पठार ऊपर गया होगा, तब एक अजूबा सामने आया जब पृथ्वी का भूगर्भीय इतिहास प्रकट हुआ ऐसा अजूबा कि देखने वाले बस देखते रह जाएँ, दाँतों तले उँगली दबाएँ, ‘जानती हो इस अजूबे को क्या कहते है?’
‘ग्रैंड कैन्यन’। विश्व के एक विशाल प्राकृतिक अजूबे के साथ ही ग्रैंड कैन्यन अमेरिका के सबसे बड़े पर्यटक केन्द्रों में से एक है।
आठवीं क्लास में पढ़ने वाली एक बच्ची के लिये जिसने तब केवल नर्मदा नदी और नर्मदा घाटी ही देखी सुनी थी, वैश्विक अजूबा नया शब्द था। मैंने तब पिताजी की तरफ आश्चर्य से देखा। मेरी नजरों में प्रश्नवाचक था, ‘हम कब जाएँगे देखने?’
पिताजी ने विश्व एटलस निकाला और समझाया कि वह हमारे पड़ोस में थोड़ी है और वह तो सात समन्दर पार अमेरिका महाद्वीप पर है। पिता की आँखें भी आश्चर्य से भरी थीं उन्होंने कहा ‘वंडर्स ऑफ द वर्ल्ड, एटलस अब मेरे हाथों में था।’ पिता भूगोल के शिक्षक थे दुनिया भर के एटलस उनकी हॉबी थी। वे दुनिया की विविधता में बच्चों की रुचि जगाने के लिये ऐसी जगहों के बारे में बताया करते थे।
ग्रैंड कैन्यन दुनिया का महा दर्रा है जो पश्चिम से आरम्भ हुआ और दूसरी तरफ पूर्व से भी बनने लगा। साथ-साथ दो धाराओं की तरफ बनते-बनते तकरीबन साठ लाख साल पूर्व दोनों दरारें एक स्थान पर एक साथ मिल गईं जैसे गंगा-जमुना मिलती हैं। मेरी कॉपी पर पेंसिल से दोनों तरफ से दो दरारों को खींचते हुए उन्होंने मिला दिया, वह कॉपी जिसमें वे दुनिया का एटलस समझाते थे, अब भी कहीं हमारे घर में मिल जाएगी। चित्र मेरी आँखों में अब भी बना हुआ है जो धुँधला हो गया था।
‘नाऊ वी आर फ्लाइंग ओवर द वंडर ऑफ द वर्ल्ड ग्रैंड कैन्यन’, हेलीकॉप्टर चालक की आवाज से मेरी तन्द्रा भंग हुई। खिड़की से नीचे झाँका। मेरी कॉपी के पन्ने पर पिता द्वारा खींची रेखा दुनिया के वितान पर एक विराट दर्रा, केवल रेखा नहीं था किसी कलाकार की पेंटिंग थी शायद, नहीं वे प्रकृति के ऐसे गुम्बद थे जैसे विष्णु के मन्दिरों के होते हैं, वे रेत के टीले थे, वे लाल भूरे काले पहाड़ थे जिन पर नक्काशी दिखाई देती है।
मैं रोमांचित होते हुए देख रही थी पिता का समझाया अजूबा, जो उनकी बेटी को उसकी बेटी ने दिखाया। पिता इस यात्रा में साथ नहीं हैं, उनका साथ छूटे सालों हो गए, पर वे मेरे साथ थे। इस यात्रा में शब्द बनकर बार-बार याद आ रहे थे मैंने आसमान की ओर देखा शायद वो मुझे दुनिया देखते हुए वहाँ से देख रहे हों?
पिता से बेहतर भूगोल का शिक्षक मैंने अपने जीवन में कहीं नहीं देखा और अप्रत्यक्ष यात्रा गाइड तो वो अब भी मेरे बने ही रहते हैं। वे आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं थे पर ज्ञान का अचूक भण्डार उनके पास था, न टी.वी. थे, ना फोन-कम्प्यूटर का तो सवाल ही नहीं था फिर कैसे वे इतना जानते थे? मेरे लिये तो यही दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा बना हुआ है।
इस यात्रा में परिवार साथ था,तिवारी जी ,पल्लवी ,विकास ,अनमोल पर मैं स्मृति की डोर पकडे पिता के साथ यात्रा कर रही थी।
और जब उदयपुर साहित्य अकादमी और संबोधन पत्रिका की तरफ से सम्मान के लिए बुलावा आया तब ?तब भी तो पिताजी की सुनाई कहानी याद आई और मैं फिर एक यात्रा पर निकल गई “
कहानी ही क्यों पिताजी की आवाज ,आवाज के उतार चढ़ाव और अचम्भे के भाव कैसे साथ चल रहे थे । बेटी रूचि और दामाद आनंद साथ थे ,जिन्हें मेरा यह धार्मिक यात्रा प्रस्ताव बिलकुल बोरिंग लग रहा पर उनके पास कोई ऑप्शन नहीं था सिवाय मेरे साथ चुप चाप चलने के .मैं एक कहानी से प्रेरित थी यहाँ जाने के लिए .हमारे दरवाजे पर एक गाय रोटी के लिए नियमित आने लगी थी और पिताजी याद रख कर दो रोटी अपने खाने से पहले अलग रख देते थे ,नंदिनी के लिए ,एक दिन किसी बच्चे ने पूछा इसका नाम नंदिनी किसने रखा ?तब उन्होंने नंदिनी की कहानी सुनाई थी । उदयपुर से लगभग 22 किलोमीटर दूर, राजस्थान राज्य में कैलासपुरी नामक एक छोटा सा गाँव है। इस स्थान की प्राकृतिक सुंदरता सभी मौसमों में अत्यंत मनमोहक मनोहारी रहती है। अरावली की पहाड़ियों से घिरा यह क्षेत्र विशेषकर मानसून के दौरान अपने सौन्दर्य के चरम पर होता है .यह मेवाड़ का किस्सा हैं सुनोगी?
हमें तो नंदिनी में इंटरेस्ट था गाय का नाम नंदिनी ?
उन्होंने सुनाना शुरू किया बचपन में एक बालक था बड़ा तेजस्वी,वह गायों को चराने के लिए जंगल में ले जाता था। सभी गायों में से एक गाय ऐसी थी जो घर लौटने पर बिल्कुल भी दूध नहीं देती थी। गाय के मालिक ने इसके लिए बालक की मां शिकायत की ,कि आपका बालक या कोई और जंगल में गाय का दूध दुह रहा है। यह सुनकर वह लड़का और उनकी मां बहुत परेशान हो गए। अगले दिन जब लड़का गायों को चराने ले गए तो उसने गायों को पानी पिलाया। पेड़ की छाया में बैठकर वो लगातार उस गाय पर नजर रख रहे थे जो दूध नहीं दे रही थी। अचानक उन्होंने देखा कि जब अन्य गायें नदी के किनारे चर रही थीं, तो यह गाय दूसरी दिशा में जा रही थी। यह देखकर बापा ने धीरे-धीरे गाय का पीछा करने का फैसला किया। उन्होंने एक बड़ा नदी का किनारा देखा। वहां गाय ने कुछ देर रुककर इधर-उधर देखा और बांस के जंगल में जाकर एक खास जगह पर खड़ी हो गई। गाय का पीछा करते हुए वह बालक बांस के जंगल में घुस गए और थोड़ी दूरी पर खड़ा हो गया उसके साथ एक और व्यक्ति था । यहां उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा तो वे दंग रह गए। उन्होंने देखा कि गाय एक खास जगह पर स्थिर खड़ी थी और उसकी दूध की धार निकल रही रही । जिस जगह पर दूध डाला जा रहा था, वहां एक शिवलिंग था। इस स्थान पर भगवान शिव लिंग के रूप में प्रकट हुए थे। ऋषियों के श्राप के कारण भगवान शिव को नश्वर संसार में अवतार लेना पड़ा। शिव भक्त यह गाय नंदिनी थी। वह अपनी भक्ति से भगवान शिव को प्रसन्न करके अपनी माँ कामधेनु को बंधनों से मुक्त करना चाहती थी।बालक को एक वाणीहीन गाय की भक्ति देखकर आश्चर्य हुआ तथा प्रसन्नता हुई। गाय की ऐसी उत्कट भक्ति देखकर उन्होंने एक से अधिक बार सिर झुकाया। यह कैसा अभिषेक देखा आज! इस पर बिना देखे कौन विश्वास करेगा। पर,इस दृश्य को देखने के लिए बाँस के वन में उस लड़के के अतिरिक्त रिक्त एक और व्यक्ति उपस्थित था। वे ऋषि हरित थे, जो एक महान योगी थे उन्होंने उस बालक से कहा एक दिन दुनिया इस पर विश्वास करेगी । वे एकलिंगजी के बहुत बड़े भक्त थे.और जानते हो वो बालक कौन था वो बप्पा रावल थे .और वह शिवलिंग मेवाड़ के और राणा, समस्त मेवाड़ जाति के आराध्य देव हैं, चाहे वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र हो। वह भगवान एकलिंगजी का स्थान है जहाँ रावण ने शिव धनुष गलती से रख दिया था और वह वहीँ स्थापित हो गया था .यहाँ दुनिया भर के शिव भक्त जाते हैं जिसके पूजन से द्वादश ज्योतिर्लिंगों के पूजन का फल प्राप्त होता है.
कहानी समाप्ति हो गई थी, एक यही क्यों इस तरह की जाने कितनी कहानियाँ सुन कर तो समाप्त हुई है पर उनसे उपजी जिज्ञासाओं ने उम्र भर साथ नहीं छोड़ा .मैंने पूछा था पापा आपने देखा हैं एक लिंग जी का वह मंदिर ?
उन्होंने कहा ‘नहीं! पर देखेंगे ना कभी ना कभी चलेंगे’.यही शब्द तो मुझे याद आते हैं उनके ,इसीलिए तो देखने जाती हूँ.
मंदिर से निकल कर सारे रास्ते मैं यह सोच रही थी कि ना उन्होंने फोटो देखे होंगे ,ना कोई वीडियो ,ना वो वहां गए तब भी जो कथा हमने उनसे सुनी वह क्या था ?क्या कोई विलक्षणता थी जिसे आज की तरह कोई सुविधाएं नहीं मिली और विलक्षणता उनके शिक्षक होने में तब्दील हो कर विराम पा गई या और और विस्तृत होती गई ? क्या कोई अचेतन मन किसी घटना के सुनने या पढने के साथ उस स्थान पर यात्रा कर सब स्मृति में समेट लौट आता रहा होगा ?या की उनके पास संजय की तरह देख लेने की दृष्टि रही होगी ? यह तो भूगोल नहीं था यह तो इतिहास है ,यह तो धार्मिक पौराणिक किस्सा। इतनी विविधता कि मैं आज तक तय नहीं कर सकी मेरे पिता शिक्षक किस विषय के थे ?और जब हल्दी घाटी पंहुची तब ? चेतक की समाधी पर मेरे आँखों नम क्यों हुई .क्यों मैं वहां चुप चाप देख रही थी , महाराणा प्रताप एवं उनके साहस का स्मरण कर मन रोमांचित था ,और मैं सुन रही थी पिताजी की आवाज, जो बता रही थी चेतक पारंपरिक साहित्य में उस घोड़े को दिया गया नाम है जिस पर महाराणा प्रताप ने हल्दी घाटी युद्ध में सवारी की थी। चेतक की टाप सुनाई दी। हवा में उड़नेवाला घोडा .जो 26 फीट के नाले को कूद कर पार कर गया था .
यहाँ अब पिताजी इतिहास के शिक्षक हो जाते थे ,और वह रोहतास दुर्ग के गवाक्ष में बैठी विधवा स्त्री ममता की कहानी जस की तस सुना देते थे। मजाल है कि जयशंकर प्रसाद का लिखा कोई अक्षर तो बदल जाय। बिना पुस्तक कहानी सुनाते हुए तो वे हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ थे ही जो उनका विषय था. अपने जीवन में इतने विषय समेटने वाले मेरे पिताजी यूं हिंदी के ही व्याख्याता थे . इतनी विविधता को कैसे समेटूं लिख कर कौन से पक्ष से लिखूँ अपने पिता को .वे तो पिता बन कर गर्मी की उन उमस भरी रातों में छत पर सोते हुए किसी ना किसी बच्चे को आकाश स्थित तारामंडल, सप्त ऋषी ,आकाश गंगा का विज्ञान समझाते हुए वे अन्तरिक्ष और खगोल में उतर जाते थे. क्या इन पिता का व्यक्तित्व शब्दों में बताना आसान होगा मेरे लिए ? वे कोई बड़े ओहदे पर नहीं थे। सुविधाओं के साथ ना बड़े हुए थे ना होना चाहते थे. उनके अनुसार शिक्षक से बड़ा ओहदा तो होता ही नहीं है,उसकी शिक्षा कभी कलेक्टर बना देती है तो कभी डॉक्टर.वे कहते जो बनाता है वह बड़ा हुआ या जो बनता है वह .यही सच भी है तभी तो गुरु गोविन्द दोउ खड़े कहा जाता है !पढ़ना ही उनका सबसे प्रिय काम था . उनका आत्मविश्वास, ज्ञान और स्वाभिमान हर ओहदे से उंचा और बड़ा था .तो आप समझ गए होंगे ये हैं मेरे पिताजी जिनके लिए लिखना कहाँ से और कैसे और कितना यह तय करना कठिन है, बहुत कठिन शायद इसीलिए चाह कर भी एक साथ कभी नहीं लिख पाई .जब भी लिखा उनके किसी एक ही पक्ष पर लिख सकी .
मध्यप्रदेश के छोटे से नगर धार में उनका जन्म आद्यगौड बाविसा ब्राहमण समाज के स्व. गोपाल राव कन्हैया लाल व्यास और मुकाती परिवार से आई मेरी दादी श्रीमती गोमती देवी की तीसरी संतान के रूप हुआ था .हमेशा मजाक में कहते मैं अपने दोस्तों को बोलता था मेरा जन्मदिन है कल सबको आना है ,फिर भी कोई आता ही नहीं जानते हो क्यों,
मेरे बेटे ने पूछा क्यों ?तब फिर आपका हैप्पी बर्थ डे ?
क्योंकि एक अप्रेल को लोग समझते मैं अप्रेल फूल बना रहा हूँ .और मैं बुला भी लेता और पार्टी भी नहीं देना पड़ती .
फिर आपका केक ?
वे हँसते और कहते तब केक नहीं, मांगीलाल हलवाई के यहाँ से मेरी पसंद की लच्छेदार रबड़ी आती .और फिर तुम्हारी नानी ने रबड़ी की जगह हलवे को दे दी बस .
बेटा पूछता सच्ची बताओ ना नानाजी आपका बर्थडे कब आता है ?
1 अप्रैल 1924.को उनका जन्म हुआ था .वे परिवार में तीसरे नंबर के पुत्र थे लेकिन सबसे पहले कमाने वे ही लगे थे, ट्यूशन उनकी इस आय का जरिया था .घर के लिए कमाते, पढ़ भी रहे थे .उनके पिता धार में आबकारी इन्स्पेक्टर थे लेकिन अंग्रेजों से पंगा लेकर नौकरी छोड़ आये ,कभी जिस घर में राजा का उपहार में दिया हाथी भी पलता था. जिस परिवार की पहचान हथ्थीवाले के रूप में थी .जहाँ मेरी दादी की चोंटी बांधने भी एक सेविका आती थी उस घर में आर्थिक संकट इस कदर आया कि पिताजी ने एक बार बताया था कि वे छतरी बाग़ तालाब पर नहाने जाते तो पहले अपनी शर्ट अच्छे से धोकर सुखाने फैलाते और शर्ट सूखती तब तक नहाते क्योंकि वही शर्ट पहन कर उन्हें ट्यूशन पढाने और पढ़ने जाना होता था .
उनका पुश्तैनी घर धार में रासमंडल पर अब भी हैं,लेकिन हम वहां सालों साल से नहीं गए और उसका कोई हिस्सा उन्हें नहीं मिला जबकी पिताजी ने इस घर के लिए बहुत कुछ किया था.एक तरह से इस घर का रिनोवेशन नए कमरे और बहुत कुछ. यह घर उनके संघर्ष का प्रेरक था.याद है मुझे बहुत बड़ा एक सडक से दूसरी सडक तक फैला घर जिसके आंगन में आगे और पीछे दो बड़े अमरुद में पेड़ थे .पिछला पेड़ लाल अमरुद का था .और उसके पास पानी रखने की पण्डेरी बनी थी। यह दिवार में एक बड़ा सा आर्च था और उसमें पानी के मटके रखने के लिए एक लाल पत्थर का प्लेटफोर्म था .इसी से लगी एक खड़ी लम्बाई में रसोई .रसोई के ऊपर मेरे पिताजी ने एक पक्के कमरे का निर्माण करवाया था जिसे ‘मनुदा’ की बैठक बुलाया जाता था .दर असल उन दिनों स्टडी रूम नाम चलन में नहीं थे शायद इसीलिए इस स्टडी को बैठक कहा जाता होगा .यहीं मैंने बड़े होने पर एक अनूठी लाइब्रेरी देखी थी जिसमें तमाम तरह की किताबें थी विश्व साहित्य की भी .गांधीजी पर भी यहाँ बहुत कुछ था ,जिसमें मेरी माँ को पुरस्कार में मिली किताबें भी थी .आज सोचती हूँ तो समझ में आता है कि उनकी ज्ञान यात्रा इन्ही के अन्दर से गुजरती रही होगी क्योंकि वो ज़माना तब का था जब कोई गूगल महाराज ज्ञान देने के लिए विकिपीडिया सहित उपलब्ध होने की कल्पना भी नहीं रही होगी .पिताजी को उनकी मोसी की बेटियां मनु बुलाती थी ,और वे ताउम्र पिताजी को ‘मनुदा’ ही बुलाती रही .संभव है बचपन में उन्हें मनु बुलाया जाता रहा होगा .इसी स्टडी की टेबल पर भी मैंने एक टेबल लैम्प और एक चिमनी भी हमेशा रखी देखी. चिमनी या तो तब की होगी जब बिजली नहीं होती थी या इमरजेंसी के लिए जब चली जाती होगी बिजली .मेरी कोई याद इस घर में रहने की नहीं है क्योंकि मेरे जन्म के बाद पिताजी नौकरी के सिलसिले में मंडलेश्वर चले गए थे तो मेरा बचपन धार से बाहर बिता .लेकिन जब कभी हम धार शादी या किसी वजह से जाते तो मुझे उस घर में यही एक कमरा बहुत आकर्षित करता था .इस कमरे में एक बड़ी सी लकड़ी की पेटी हुआ करती थी जिसमें दिवार पर लगे चित्रों के बाद दुनिया के तमाम महा पुरुषों की तस्वीरें एक समान साइज में फ्रेम की हुई रखी थी .मैं सबसे ज्यादा विचलित होती थी टेबल के सामने वाली दिवार पर प्रभु इशु की सूली पर टंगी तस्वीर देख कर ,उनके हाथ पैरों में कीलें ठुकी हुई देख कर .पिताजी तो उच्च कुलीन चवन गौत्र व्यास ब्राह्मण जो कालभैरव और गोवर्धनधारी श्रीनाथ जी के पुजारी परिवार से थे, तब ईसा मसीह की तस्वीर उनकी दिवार पर क्यों ..?तब पिताजी ने उस लकड़ी के बोक्स में से गुरुनानक भी निकाले और बुद्ध भी इनका किसी धर्म से नाम क्यों जोड़ कर देखना ,ये सभी महापुरुष हैं, ईसा की ये तस्वीर पहले दुखी जरुर करती है,जैसे तुम्हे कर रही है,मुझे भी किया था.लेकिन फिर यह तस्वीर हमें तमाम तकलीफों में भी कहती है कि दुनिया की कोई भी तकलीफ इससे बड़ी पीड़ा या संकट नहीं हो सकती ,घबराना नहीं इन्हें झेलना सीखना चाहिए .यह तस्वीर धैर्य रखने की हिम्मत देती है. उनके पास हर तस्वीर के साथ बहुत से तर्क और प्रेरणाएं थी. शायद इस तस्वीर और उसकी पीड़ा से अनजाने ही मैं प्रेरित हुई होंगी और बड़ी होने पर मैंने बाइबिल पढ़ी और डिप्लोमा किया. मैंने अपने पिता में कभी भी धार्मिक कट्टरता नहीं देखी. इसी टेबल पर मैंने पृथ्वी का ग्लोब पहली बार देखा था ,जो बाद में हमारे घर में भी देखा गया और आधी धरती हमने बचपन में उसी ग्लोब पर घूम ली थी .फिर चाहे उत्तरी अंटार्टिका हो चाहे नील नदी .पिता का अपना समृद्ध बौद्धिक ज्ञान था जो उन्हें क्या से क्या बना सकता था .कहते हैं ना कि उर्वर मिट्टी और अनुकूल मौसम ही किसी सुप्त बीज को वृक्ष बनने का अवसर देता है ,पिताजी के भीतर सृजन की बीज हर बार अनुभव हुए काश उन्हें उर्वर मिट्टी के साथ अनुकूल परिस्थितियों का मौसम मिला होता तो —-शायद उनकी कहानी कुछ और होती .
इस कमरे का एक और किस्सा पिताजी ने तब सुनाया जब हमारे आलीराजपुर के घर के पडोसी कुरैशी साहब के घर में आधी रात को नाग देवता उनकी पलंग से लगी खिड़की में लटक रहे थे. खैर कुरैशी अंकल का किस्सा फिर कभी अभी तो पिताजी के बैठक का किस्सा सुनिए .
पिताजी कोई किस्सा फटाफट नहीं सुना सकते थे वे उस रोमांच को किस्से में लाकर ही सुनाते थे .दरअसल वे अद्भुत किस्सागोइ करते थे .उन्होंने बताया एक बार वे बी ए की पढ़ाई कर रहे, दिन भर ट्यूशन के बाद अपनी पढ़ाई के लिए रात ही का समय मिलता था .उस दिन आधी रात हो गई थी टेबल पर लालटेन जल रही थी और अचानक उन्हें दिवार पर कुण्डली मारे बैठे सांप की छाया दिखी. हम लोगों ने पूछा “फिर ” ?
फिर क्या ? रोंगटे खड़े हो गए. पैर कांपने लगे मैंने दिवार से नजरें टेबल पर डाली कम से कम पांच फीट के बाबा आधी टेबल पर चक्कर मार कर मुझे टकटकी लगा कर देख रहे थे,जैसे ही नजर गई सारे शरीर में झूर झूरी फ़ैल गई ,ना उठ सकता था ना चिल्ला सकता था .ना हिल डूल सकता था क्योंकि उनकी मुद्रा समझ में आ गई थी कि बच्चू बैठे रहो कोई करामात की तो ? परिवार संयुक्त था तब सब अपने अपने कमरों में सो रहे थे .मैं जरा सा भी हिलता तो वो फन मार देता, टेबल उलट दू यह सोचा तो कंदील से आग लग सकती थी और टेबल उलटने के लिए हाथ तो उठाना ही पढ़ते ना — .फिर त्वरित बुद्धि ही काम आई .मैंने ऊपर से बिना हिलेडुले अपने पैरों की उँगलियों से फर्श पर पकड बनाते हुए कुर्सी एक झटके में पीछे गिरा दी और उठकर दरवाजे के बाहर हो गया और दरवाजा बाहर से लगा दिया .अगर मैं किताब का पन्ना भी पलटता तो वो जो नागदेव की चौक्न्नी मुद्रा थी वो डसे बिना नहीं रहती .बाहर आया जान बची तो लाखों पाए. इस तरह उस कमरे का यह किस्सा याद आ गया .मेरे पिताजी की इस कमरे वाली यह लाइब्रेरी मेरी नजरों में आज तक ज्यों की त्यों है .उन्हें मूर्तियों का भी शौक था,और पोधों का भी.उन्होंने पक्षियों में मिठ्ठू पाला था. ये गुण किसी ना किसी बेटियों में भी आयें है .
युवा अवस्था में उनका सुगठित सुदर्शन व्यक्तित्व रहा जो आत्मविश्वास की चमक से हमेशा दमकता था .बोलने में वे एक दम स्पष्ट वक्ता ,ना लाग ना लपेट,वे कहते थे जो सच है उसे एक बार बोलने से दस झूट नहीं बोलने पड़ते .जो कहना है वे कह देते थे।
मेरे पिता का विवाह धार जिले के एक छोटे से गाँव खिलेड़ी-फुलेड़ी के पटेल श्री -नारायण राव जोशी पटेल की सबसे छोटी और पांच संतानों में से एक मात्र पुत्री पुष्पावती से हुआ. माँ विवाह के समय उम्र में छोटी थी इसलिए पिताजी ने उन्हें नियमित छात्रा के रूप में पहले भोज कन्या विद्यालय धार में पढाया फिर प्रायवेट विद्यार्थी के रूप में माँ ने स्नातक और साहित्य रत्न भी किया.इस तरह मेरे पिता ने माँ के व्यक्तित्व को भी उभरने का अवसर दिया.वे शिक्षिका बनकर भी उसी स्कूल में गई जहाँ पढ़ती थी .
पिताजी का अपनी माँ से भी बहुत लगाव था,स्वभाव के बारे में कहा जाता है कि मेरे दादाजी भी बहुत स्वाभिमानी और गुस्सेवाले थे और पिताजी को तेज गुस्सा आता था. यह थोडा मुझमे भी है,क्योंकि मेरी मम्मी कहती थी बिलकुल अपने पापा जैसी है पांच मिनिट का गुस्सा पर –एसा कि– . बावजूद इसके वे दिल से बहुत ही दयालू और दरियादिल इन्सान थे. माँ का उन्होंने हर हाल में बहुत ख्याल रखा और हर बार वे यह सुनिश्चित करते की माँ को भी हमारी माँ को भी कम से कम परेशानी हो. उनकी हम पांच संताने हुई चार बेटियां और एक बेटा.उनकी बौद्धिक संपदा ईश्वर की कृपा से संतानों में भरपूर आई .उन्होंने ताउम्र विद्या दान किया था तो सरस्वती माँ की उनकी संतानों पर भरपूर कृपा बन रही .स्त्री शिक्षा के प्रबल पक्षधर मेरे पिताजी ने सारी उम्र जरूरत होने पर विद्यार्थियों की फीस तक अपनी जेब से भर कर उन्हें आत्म निर्भर होने के लिए विद्या दान किया.माँ ने भी इस मिशन में पिता को आर्थिक संबल प्रदान किया.ना कभी माँ को उनसे कोई शिकायत रही ना माँ ने विरोध किया क्योंकि माँ खुद एक शिक्षक भी थी और शांत और सोम्य स्वभाव की ही थी .
नौकरी मनुष्य को आर्थिक संबल जरुर देती है पर वह कई बार उसे कमजोर भी करती है ,स्पष्टवादी व्यक्ति चापलूसों की दुनिया में हमेशा संघर्ष करता है और मेरे पिताजी ने भी नोकरी, ट्रांसफ़र,सबके चलते कठिन परिस्थितियों का हर वक्त सामना किया.ये कठिन परिस्थितयां हमें उन्होंने कभी प्रकट नहीं होने दी. आज जब सोचते हैं तब लगता है कितना मुश्किल रहा होगा, पति पत्नी का अलग अलग रह कर नोकरी ,बच्चे, स्वास्थ.सब मैनेज करना !एक स्कूल शिक्षक का अपनी होनहार बेटियों को इंदौर के मोती तबेला स्थित महाविद्यालय में होस्टल में रख कर पढ़ाना ,हर माह उनसे अलीराजपुर से आकर मिलना, उनकी फीस ,खर्चे कितना मुश्किल रहा होगा और बेटियों के पिता की अनकही चिंताएं भी तो होती होंगी ?
पर उन्होंने ही हमें अपनी तरह ‘अप्पो दीप भव’ अपने दीपक खुद बनो की प्रेरणा दी .हमारे लिए अप्पो दीप भव के प्रतीक रहे मेरे पापा जैसे लोग समाज के लिए उस साधारण आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो संघर्षों से हार नहीं मानते —- वे एक पथ तैयार करते हैं जीवन का जो चलते रहने के लिए प्रकाशवान होता है ,कहाँ मानी उन्होंने भी हार किसी से भी और किसी के लिए भी दूसरों से कई बार उलझ जाते अपनी परवाह किये बिना तभी तो शिक्षक की नोकरी में भी वे धार के बाद कभी मंडलेश्वर ,मनावर , अलीराजपुर से लेकर झाकनावदा, दसई, दवाना, तिरला से लेकर बस्तर के गीदम तक भेज दिए गए. बस्तर उन दिनों एक तरह से कालेपानी की सजा जैसा था पर वे गए गीदम तक. भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के दन्तेवाड़ा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह इसी नाम की तहसील का मुख्यालय भी है। वह आज का सर्व सुविधायुक्त छत्तीसगढ़ नहीं था,पांच दिन लग गए थे उन्हें अपने बीमार बेटे की सुचना मिलने के बाद उस तक पंहुचने में और जब पंहुचे तब तक बेटे को गए पांच दिन हो गए थे. कहते थे जो वाहन मिला उससे आगे बढ़ता गया बस, ट्रक, ट्रेन सतत चला पर पकड नहीं पाया समय की गति को और रोक नहीं पाया विधि के विधान को .यह वह दुःख था जिसका कोई और छोर नहीं था इकलोता अद्भुत गणित की क्षमता वाला उनका भविष्य उनका गायक बेटा प्रदीप जो छठी क्लास में आठवीं के गणित के सवाल क्लासरूम के बोर्ड पर मिनटों में कर डालता था. उसकी प्रखरता और उसकी उस उम्र में मंच पर गाने की अद्भुत प्रतिभा ही नजरा गई थी वो बेटा जो मेरे बाद जन्मा था तो मेरी पीठ पर नारियल चढ़ा कर बदारे गए थे .जो मूल नक्षत्र में जन्मा तो पिता ने इक्कीस दिनों तक उसे देखने के लिए इन्तजार किया था और मूल नक्षत्र की शान्ति पूजा के बाद ही अपने बेटे का मूंह देखा था ,वो अचानक निमोनिया के अटैक में राखी के ठीक तीन दिन पहले चला गया था. माता पिता सहित हम सबके जीवन में एक सन्नाटा छोड़ कर.पुत्र वियोग अंदर से तोड़ देता है पर वे सदा खड़े रहे,डटे रहे हम बेटियों के लिए.हमने जब जहाँ उन्हें मुश्किल में बुलाया वे हर हाल में हम तक पंहुचते रहे .शायद वे हमारे सबसे बड़े सपोर्ट सिस्टम थे.हमारी हिम्मत थे .
ना केवल बेटे को, समय ने उनसे उनकी एक बेटी भी असमय छीन ली.कोई कितनी हिम्मत रखे .यह कोई कहानी नहीं है जीवन का दर्द है और मर्म भी .जब भी उनकी मनस्थिति पर विचार आता है तो मैं निशब्द ही हो जाती हूँ ,उनके अनकहे दर्द के आगे ,दर्द जो था पर सामने नहीं आने देते थे कैसे ?क्या सालो पहले उन्हें उनकी बैठक में रखी ईसा मसीह की सूली पर टंगी वह मुस्कान ही प्रेरणा देती होगी जीवन सहने और चलने का नाम है.शायद नियति तभी से जानती थी उनके इन आघातों को? देखा जाय तो उनके जीवन का परिदृश्य फिर बदल गया था। एकाएक,इस विषय पर वे ज्यादा बात नहीं करते थे ,पर कभी कभी कहते थे भाग्य का लिखा कौन बदल सका? पिता के लिए यह भयावह यंत्रणा का ही समय रहा होगा. पर वह यंत्रणा उन्होंने कभी व्यक्त नहीं होने दी हमेशा सी गति से चलते रहे .पर मैं महसूस कर सकती हूँ उनकी पीड़ा ,मैंने सुना था उस सन्नाटे का शोर जो चलता होगा अंदर ही अन्दर बिना किसी शब्द के.
एक समय एसा भी आया जब मैंने उनके साथ ही उसी स्कूल में नौकरी भी की,धार जिले के तिरला गाँव में,यह मेरे सर्विस में आने की पहली पोस्टिंग थी.उस स्कूल स्टाफ में मैं सबसे कम उम्र की शिक्षक थी उपर से व्यास सर की बेटी,जाहिर है मुझे स्टाफ में एक अलग तवज्जो मिलती.हम पिता पुत्री एक साथ बस से रोज सफर करते धार से जाते और धार वापस आते. वह साथ बिताया समय सिखने का था ,उनकी छोटी छोटी बातें बड़ी सीख बनी जो जीवन भर साथ चली .
रिटायमेंट उनका 56 साल में हो गया था तब शायद यही रिटायरमेंट की उम्र निर्धारित थी. वे जितने अच्छे पिता थे उससे कहीं ज्यादा अच्छे वे नानाजी थे.
उनके छात्रों में उनकी एक अलग पहचान थी ,एक बार उन्हें हार्ट प्रोब्लम में हमने इंदौर के क्योर्वेल होस्पिटल में एडमिट किया,अस्पताल की और से हार्ट स्पेशलिस्ट डॉ. विद्युत जैन को विजिट के लिए बुलाया गया था.डॉ.जैन ने बताया उनके हार्ट के दो वाल्व खराब हो गए हैं,बदले जा सकते हैं पर मेरी सलाह है इस उम्र में ना बदलें तो ही ठीक रहेगा क्योंकि उन दिनों वाल्व दिल्ली या बाम्बे से बुलाने पड़ते थे और सर्जरी इतनी आसान नहीं होती थी जैसी आजकल हो जाती हैं .पिताजी ने भी यही कहा बेटा,मैं जैसे हूँ वैसे ही रहना चाहता हूँ क्योंकि उम्र का एक पल भी कोई घटा बड़ा नहीं सकता, छेड़ना क्यों ?लेकिन उनका दवाइयों से इलाज चलता रहा .डॉ. विद्युत जैन ने उनकी विजिटिंग फीस नहीं ली और कहा आप मेरे क्लिनिक पर जब चाहें आ कर चेकअप करवा सकते हैं .फीस ना लेने का कारण उन्होंने कहा गुरु को दक्षिणा दी जाती है, ली नहीं जाती .सर मेरे गुरु हैं धार मिडिल स्कूल में सर ने मुझे पढाया था.शिक्षक पारस पत्थर के सामान ही होते हैं उनके शैक्षणिक स्पर्श मात्र से ,उनके आशीर्वाद से जीवन स्वर्णिम हो जाता है .उनके कई छात्र उन्हें याद करते रहे हैं. उनके एक विद्यार्थी को उन्होंने भरी क्लास में पिटा था ,क्लास से निकाल दिया क्योंकि उसने दूसरे छात्र के खड़े होने पर उसकी सीट पर नुकीली पेंसिल रख दी जिससे वह छात्र जख्मी हो गया था. पिटाई से नाराज उस छात्र ने बड़े होने पर एक बार बताया कि उस दिन सर ने मेरी जिन्दगी बदल दी क्योंकि मैं उसके बाद ही सुधरा था ,सर जैसे गुरु होने चाहिए –गुरु कुम्हार की भाँती ,अपने शिष्य रूपी कुम्भ की बुराइयों को सावधानी पूर्वक बाहर करते चलते हैं ,ठीक वैसे ही जैसे कुम्हार घड़े को बाहर से ठोकता है ,पर भीतर से घड़े को संवार रहा होता है.
उन्हें शायद पूर्वाभास भी होता था ,तभी तो कई साल पहले उन्होंने अस्पताल में भर्ती स्थिति में कहा था क्यों रो रही हो मुझे 2004 तक कुछ नहीं होगा. और सहज कहा गया वाक्य इतना सच कैसे हो गया. मेरे पिता एक कर्मठ व्यक्ति थे, सारी उम्र शिक्षा ही बांटी थी उन्होंने वे अपनी जिन्दगी के अंतिम पल में भी एक बच्चे को सुबह उठाकर परीक्षा के लिए पढ़ा रहे थे. उत्तरायण यानी सूर्य का उत्तर दिशा की ओर गमन हुआ ही था ,उन्होंने ही कभी हमें समझाया था पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने के लिए इन्तजार किया था . उत्तरायण को प्रकाश का समय कहा गया है और काफी शुभ माना गया है. इसमें दिन बड़े हो जाते हैं और रात छोटी हो जाती हैं. गीता में बताया गया है कि उत्तरायण काल में शरीर का त्याग करने पर मोक्ष की प्राप्ति ही होती है.16 जनवरी 2004 वे भोपाल आये हुए थे अपने नाती को पेपर देने जाने के पहले पढ़ा रहे थे,थोड़ी ही देर में उन्होंने प्राण त्याग दिए .
उनके उत्तर कार्य के लिए उनकी डायरी हमारी मदद कर रही थी 16 जनवरी के लिए वे जो लिख रहे थी। वह आधी पंक्ति के बाद पेन की स्याही ख़त्म हो गई थी और उन्होंने उसे वैसे हो छोड़ दिया था .बहुत हैं अभी लिखने के लिए पर अब मन भारी हो रहा है इसे यहीं विराम दे रही हूँ .शेष फिर कभी —सादर नमन !
पुत्र -पुत्री वियोग की खामोश आवाजें
ठहरी हुई हैं हवाओं में
बाबूजी बगैर मशीनों के भी
सुन रहे थे -अपने अतीत बन चुके भविष्य से उपजे सन्नाटे को
अकेले ही खोजते रहते ,बच्चों के बच्चों में
या आसपास के लड़कों में
अपने प्रदीप की पूरानी किताब-कापियों में
वे खोजते थे हंस कर
घर की दिपदिपाती आभा को
पर दर्द का धुआँ भर जाता होगा साँसों में
वे बदल लेते थे अपने चेहरे के भाव
खामोश अकेले अहसासों में -स्वाति
स्वाति तिवारी भोपाल ,साहित्य जगत में परिचित नाम।
डॉ . स्वाति तिवारी,जन्म -17 फरवरी ,धार मध्यप्रदेश ,शिक्षा -एम. एस. सी ,एल एल बी ,एम् फील .पी एच डी
संवेदना ,सोच और शिल्प की बहुआयामिता से उल्लेखनीय रचनात्मक हस्तक्षेप करनेवाली महत्वपूर्व रचनाकार स्वाति तिवारी ने पाठकों व् आलोचकों के मध्य पर्याप्त प्रतिष्ठा अर्जित की है। सामाजिक सरोकारों से सक्रिय प्रतिबध्दता ,नवीन वैचारिक संरचनाओं के प्रति उत्सुकता और नैतिक निजता की ललक उन्हें विशिष्ठ बनाती है।
देश की अधिकाँश प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशन ,विविध विषयों और विधाओं की लगभग पंद्रह पुस्तकें प्रकाशित ,कई पुस्तकों का सम्पादन। विशेष उल्लेखनीय उपन्यास ‘बह्म कमल एक प्रेम कथा ‘अकेले होते लोग ,बैंगनी फूलों वाला पेड़ ,पेंडुलम ,स्वाति तिवारी की चुनिंदा कहानियां ,क्या मैंने गुनाह किया ,सवाल आज भी जिन्दा हैं ,भोपाल के पक्षी ,मैं औरत हूँ मेरी कौन सुनेगा ,जमीन अपनी अपनी। भोपाल गैस त्रासदी पर केंद्रित स्त्री विमर्श सवाल आज भी जिन्दा हैं प्रामाणिक दस्तावेजी लेखन के लिए बहुचर्चित एवं इस पुस्तक पर पापुलेशन फर्स्ट संस्था द्वारा राष्ट्रिय लाड़ली मीडिया अवार्ड ,राष्ट्र भाषा प्रचार समिति का वांग्मय सम्मान ,एवं शोध आधारित पत्रकारिता सम्मान प्राप्त। सम्पादित पुस्तक ‘शब्दों का दरवेश’ तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी द्वारा भाषाई पत्रकारिता सम्मलेन में लोकार्पित।
एक कहानीकार के रूप में सकारात्मक रचनाशीलता के अनेक आयामों की पक्षधर। हंस ,नया ज्ञानोदय,पाखी ,परिकथा ,साक्षात्कार ,कथाबिंब ,परिंदे ,अहा जिंदगी ,लमही सहित देश की सभी साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियां चर्चित एवं प्रशंसित। किताब घर से प्रकाशित उपन्यास ब्रह्मकमल एक प्रेम कथा वर्ष 2015 में ज्ञानपीठ पाठक सर्वेक्षण में श्रेष्ठ पुस्तकों में नामांकित।
स्वाति तिवारी मानव अधिकारों की सशक्त पैरोकार ,कुशल संगठनकर्ता व प्रभावी वक्ता के रूप में सुपरिचित हैं। डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण व् निर्देशन में निपुर्ण कलागुरु विष्णु चिंचालकर , परिवार परामर्श केंद्रों पर ‘घरोंदा ना टूटे’ सहित फिल्मों का निर्माण। अनेक पुरस्कारों व सम्मानों से विभूषित। प्रमुख हैं -भारत सरकार द्वारा चयनित भारत की 100 महिला अचीवर्स में चयनित और राष्ट्रपति श्री प्रणव् मुकर्जी द्वारा सम्मानित। मध्यप्रदेश शासन के लिए जनजातियों पर केंद्रित ‘बानगी’ संकल्पना और सम्पादन। इस पुस्तक की प्रथम प्रति मुख्यमंत्री द्वारा तत्कालीन राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द को भेंट की गई। अंग्रेजी पत्रिका सन्डे इन्डियन द्वारा21 वीं सदी की 111 लेखिकाओं में शामिल ,’अकेले होते लोग’पर राष्ट्रिय मानव अधिकार आयोग ,दिल्ली द्वारा सम्मानित। ,मध्यप्रदेश साहित्य सम्मलेन द्वारा कहानी के लिए ‘वागेश्वरी सम्मान ‘ से अलंकृत ,स्वाति को मध्यप्रदेश साहित्य द्वारा वर्ष 2014 के लिए अखिल भारतीय गजानन माधव मुक्तिबोध और वर्ष 2013 के लिए कहानी संग्रह पेंडुलम पर सुभद्रा कुमारी चौहान प्रादेशिक पुरस्कार से नवाजा गया,जबलपुर की पाथेय साहित्य कला अकादमी द्वारा पंचम गायत्री सम्मान ,वर्ष 2024 का डॉ. मूलाराम जोशी स्मृति उत्कृष्ट साहित्यकार सम्मान पदान किया गया है।
देश देशांतर में हिंदी भाषा एवं साहित्य की सेवा हेतु प्रतिबद्ध। नौवें विश्व हिंदी सम्मलेन में दक्षिण अफ्रीका में मध्यप्रदेश शासन का प्रतिनिधित्व। विश्व के अनेक देशों की यात्राएँ। पर्यावरणविद एवं पक्षी छायाकार। कहानियों पर देश भर में विभीन्न विश्व विद्यालयों में शोध कार्य। रचनाये को भाषाओँ में अनुदित। अनुसंधान एवं योजना अधिकारी के पद से सेवानिवृत। वर्तमान मेंदेश के अग्रणी न्यूज पोर्टल मीडियावाला में फीचर सम्पादक।